रविवार, 3 दिसंबर 2017

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निदान भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निदान भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में 
प्रतिभा कटियार
Related imageआये दिन हममें से अधिकांश लोग प्रायः किसी न किसी अंतर्विरोध का सामना करते हैं तो मन अनायास ही उसके समाधान की ओर निकल जाता है।  गहराई में जाकर पता चलता है कि  समस्या के पीछे या तो कोई अकल्पनीय क्षण होता  होता है या फिर मानव  मन की परिकल्पना से उपजी संघर्ष की मनोदशा ऐसी परिस्थिति में दिखाई देता है हर ओर लोग अंतर्विरोध से जूझ रहे होते हैं।  आखिर क्या किया जाए इन अंतर्विरोधों का ऐसे अवसर पर आपको कोई ना कोई व्याख्यान  देते हुए दिख जाएगा। तर्क तथ्य प्रमाण दृष्टांत आदि का हवाला देकर मस्तिष्क को बांधकर हम अपनी हालत किसी प्राचीन दार्शनिक की भांति बना लेते हैं और प्रकृति के नियम को अपने सर को पूरा ब्रह्मांड समझ कर उसके अंदर ही खोजने का प्रयत्न करते हैं  कुछ हद तक हम समस्या पर काबू पा लेते हैं किंतु इससे अनिवार्य रूप से यह खतरा उत्पन्न होता है की विश्व का इस तरह से बनाया गया चित्र जो  हमारी परिकल्पना में होता है वास्तविक चित्र से  भिन्न ही होता हैl
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हल  प्रयोग से निकलना चाहिए 
तमाम तरह के मनोवैज्ञनिक  जड़त्वों  का सामना हमें करना पड़ता है और संघर्ष करते-करते समस्या के अंतिम समाधान की ओर जाने से पहले हमारी गति क्षीण हो जाती है। हमारी सोच नजरिया वक्तव्य श्रवण और दर्शन की क्षमता किसी संकीर्ण परिधि में बंध जाती है और हम चाह कर भी मंजिल की ओर नहीं पहुंच पाते मस्तिष्क में रासायनिक तत्वों का निर्माण शुरू हो जाता है और फिर टूट फूट मरम्मत का दौर शुरू हो जाता है ऐसे में लोग समस्याओं से घिरे हुए दिखाई देते हैं। भौतिकी के किसी भी सिद्धांत का सर्वोत्तम पारखी प्रयोग होता है। 
कैसे करें प्रकाश का प्रसरण 
Image result for man in standing sketch तमसो माँ ज्योतिर्गमय  अंधकार से प्रकाश की ओर गमन या अंधकार में ही प्रकाश का प्रसरण कैसे होना चाहिए ऐसे तर्कों से सीमित ना होकर प्रयोगों की ओर ध्यान देना चाहिए जो यह दिखाएंगे कि इन स्थितियों में प्रकाश का प्रसरण वास्तव में कैसा होता  है। ऐसा एक प्रयोग जो हमारे लिए सरल है क्योंकि हम स्वयं एक गतिमान पिंड पर रहते हैं। सूर्य की परिक्रमा में रत पृथ्वी किसी भी तरह सरल रेखा में गति नहीं करती और इसलिए किसी अन्य प्रयोगशाला के सापेक्ष स्थायी विरामावस्था में नहीं हो सकती। 
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इसलिए पृथ्वी पर प्रकाश के प्रसरण का अध्ययन करने का उद्देश्य रखते हुए हम वास्तव में प्रकाश के प्रसरण का अध्ययन एक गतिमान प्रयोगशाला में कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त हमारी परिस्थितियों में इस प्रयोगशाला का वेग अधिकतम है - 30 किमी प्रति सेकेण्ड। पृथ्वी का उसके अक्ष के गिर्द घूर्णन इस वेग में आधा किमी प्रति सेकेण्ड का अंतर उत्पन्न करता है जिसकी हम उपेक्षा कर सकते हैं। प्रश्न उठता है पृथ्वी पर खड़े किसी व्यक्ति की बराबरी क्या एक चलती रेलगाड़ी के साथ कर सकते हैं ?  
क्या हम ठहर गए हैं ? 
                               इस अंतर्विरोध के चलते हम अपनी खोज आगे नहीं बढ़ा पा रहे थे क्या हम ठहर गए हैं ? रेलगाड़ी सरल रेखा पर समरूप गति से चल रही थी और पृथ्वी वृत्ताकार पथ पर चल रही है फिर भी हम पृथ्वी की बराबरी रेलगाड़ी के साथ कर सकते हैं।
Image result for physics light velocity                       इन दोनों प्रेक्षकों को कोई दूर जाकर अध्यन करे तो उसे दिखाई देगा कि प्रकाश का आचरण पृथ्वी पर भी ठीक वैसा ही है जैसा रेलगाड़ी में। 

प्रकाश प्रसरित होता है समान वेग से 
                 सन 1881 में एक महान भौतिकविद माइकल्सन ने एक प्रयोग किया उन्होंने पृथ्वी के सापेक्ष प्रकाश के वेग को उसकी विभिन्न दिशाओं में पर्याप्त उच्च शुद्धता से नापा। वेगों के छोटे अंतर को पकड़ने के लिए उन्हें बहुत सूक्ष्म प्रायोगिक तकनीक का उपयोग करना पड़ा था।
                      प्रयोग की शुद्धता इतनी अधिक थी कि वेगों के अनुमानातीत सूक्ष्म अंतर को भी ज्ञात किया जा सकता था। माइकल्सन का प्रयोग उस समय से बिल्कुल भिन्न स्थितियों में दोहराया जाता रहा है जिससे सर्वथा अप्रत्याशित परिणाम सामने आये। पता चला कि गतिमान प्रयोगशाला में प्रकाश का प्रसरण वास्तव में बिल्कुल दूसरे ढंग से होता है वैसे नहीं जैसे हमने अपने तर्क में पहले सिद्ध किया था। माइकल्सन ने यह ज्ञात किया कि गतिमान पृथ्वी पर प्रकाश सभी दिशाओं में सर्वथा समान वेग से प्रसरित होता है।
प्रकाश की त्रासदी - प्रकाश तत्काल नहीं फैलता 
                   प्रकृति का एक महत्वपूर्ण नियम जिसे गति की सापेक्षिकता का सिद्धान्त कहा जाता है, सिद्धान्त है एक दूसरे के सापेक्ष सीधी और समरूप गति से चलने वाली सभी प्रयोगशालाओं में पिंड की गति समान नियमों का पालन करती है। प्रकाश भी सामान गति से पृथ्वी पर स्थापित सभी प्रेक्षकों पर फैलेगा किन्तु प्रकाश का प्रसरण तत्काल एक समान और क्षणिक नहीं होता हालाँकि उसका वेग बहुत विराट है तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड।
Related image              ऐसे विराट वेग की कल्पना करना कठिन है क्योंकि हमारे जीवन में हमारा वास्ता इससे कम वेगों से ही पड़ता है। इसके फैलाव का वृहत वेग भी अनोखा है आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस वेग को कभी बदला नहीं जा सकता। जबकि पृथ्वी पर अन्य प्रेक्षकों की गतियों के वेग को घटाया या बढ़ाया जा सकता है चाहे वो चलती रेलगाड़ी हो या फिर बन्दूक से छोड़ी गयी गोली।
          उदाहरण के लिए यदि दागी गयी गोली के रास्ते में रेत की बोरी रखें बोरी को छेदकर गोली के वेग का अंश खो जायेगा तथा गोली पहले से धीरे चलेगी। प्रकाश की स्थिति बिल्कुल भिन्न है। प्रकाशीय किरणों के पथ में एक शीशे की प्लेट रखें। चूँकि शीशे में प्रकाश का वेग निर्वात की अपेक्षा कम होता है , इसलिए उसमें किरण पहले से धीरे चलेगी। यध्यपि शीशे से गुजरकर प्रकाश फिर तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड का वेग प्राप्त कर लेगा। निर्वात में प्रकाश का प्रसरण अन्य सभी वेगों से भिन्न होता है। उसको कम या तेज नहीं किया जा सकता और यह उसका एक महत्वपूर्ण गुण है। प्रकाश की किरणें चाहे किसी प्रकार के पदार्थ से गुजरें ,पर निर्वात में आते ही उसका प्रसरण पूर्व वेग से होने लगता है।
मस्तिष्क को निर्वात में जाने से रोकें 
           कुछ ऐसी घटनाएँ, व् विश्वस्त प्रयोग हमें सापेक्षिकता सिद्धांत को सत्य मानने के लिए विवश करते हैं, यह सिद्धांत हमारी परिवेशी दुनिया के उन आश्चर्यजनक गुणों को प्रकाश में लाता है ,जो सतही अध्यन से प्रकट नहीं होते।
क्या हमने कभी सितारों की यात्रा के वारे में ध्यान दिया ,आकाश में सितारे हमसे इतनी दूर हैं कि इनमें से कुछ तक प्रकाश किरण को पहुँचने में 40 वर्ष लग जाते हैं। चूँकि हमें पूर्व ज्ञान है कि प्रकाश वेग से तेज यात्रा करना असंभव है ,हम अच्छी तरह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सितारे तक 40 वर्ष से कम समय में पहुंचा नहीं जा सकता। यद्धपि यह निष्कर्ष गलत है क्योंकि हमने गति से सम्बंधित समय में परिवर्तन को ध्यान में नहीं रखा।
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यदि हम गति या वेग को बढ़ा दें तो उड़ान के समय को कम किया जा सकता है।
          सैद्धांतिक रूप से , काफी बड़े वेग से यात्रा करके हम एक मिनट में सितारे तक जाकर वापस पृथ्वी   पर आ सकते हैं पृथ्वी पर हालाँकि इसके दौरान कई वर्ष बीत जायेंगे। ऐसा लगता है कि इस प्रकार हमारे पास मानव को दीर्घायु करने का आधार हो गया , यद्पि केवल अन्य लोगों के दृष्टिकोण से ,चूँकि मानव उसके अपने समयानुसार वृद्ध होता जाता है। तथापि खेद है कि यदि सरसरी नज़र भी डालें तो यह सम्भावना अवास्तविक है। मानव शरीर दीर्घकालीन त्वरण की अवस्था के अनुकूल नहीं है ,जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के त्वरण से अधिक है। इसलिए प्रकाश के वेग के निकट गति को प्राप्त करने के लिए दीर्घकाल की आवश्यक्ता होती है।