सोमवार, 23 जनवरी 2017

The Dilemma of Handloom industry

असमंजस के दौर में भारतीय हथकरघा उद्योग 


जब नए विकल्प तलाशे जा रहे हों तो क्यों ना हम एक नए नजरिये से देखें बात सिर्फ रेवेन्यू बढ़ाने की नहीँ है। बात है खादी वस्त्र और अन्य भारतीय उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में साख बनाने की और जब इसकी तैयारी जोरों से चल रही हो एक ऐसे  समय पर, जब  खादी अपने सौ वर्ष पूरे कर अपनी शतक यात्रा करने के बाद पुनः  एक नए पड़ाव पर हो तब हमारी सोच और चर्चा का विषय इस बात को लेकर तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता कि चरखे के पीछे किसकी तस्वीर चस्पा होनी चाहिए गंगूबाई की ,गाँधी जी की या फिर मोदी जी की या फिर इस बात को लेकर भी कि चरखे के बहाने एक बार फिर गाँधी दर्शन पर विमर्श किया जाये  जो कि आजादी के बाद की पीढ़ी के लिए एक बहुचर्चित डिबेट या ग्रुप डिस्कशन का मुद्दा बन चुका है। 
       
  क्यों ना बार&aबार भ्रमित करने और नई पीढ़ी के लिए असमंजस फ़ैलाने वाले मुद्दों से बाहर निकलकर हम तथ्यात्मक और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाएं और चरखे से सम्बंधित कुछ बातों को हम एक निर्विवाद सत्य के रूप में स्वीकार कर लें और वो यह कि चरखे के साथ हमारा जुड़ाव बहुत पुराना और लम्बा है। इसका अपना इतिहास होने के साथ चरखा आजादी का प्रतीक भी है जिसके बल पर गाँधी जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की बुनियाद खड़ी की। चरखे ने क्रांति ला दी और देखते ही देखते अंग्रेजी शासन की नींव उखड़ने लगी पूरे भारत में चरखा और गाँधी जन &जन की जागृति का प्रतीक बन गए। और इस प्रतीक के माध्यम से गुलाम भारत और स्वतन्त्र भारत के ऐतिहासिक संघर्ष की दास्तान भी सुनी जाने लगी। पर क्या स्वयं गाँधी जी इसे मात्र आजादी दिलाने तक ही सीमित मानते थे उनके विजन में तो कृषि और कुटीर उद्दोग के जरिये देश की अर्थव्यवस्था और समग्र विकास का ढांचा तैयार करने का सपना था।   
     क्यों ना हम बहसबाजी की बजाय क़ुछ नए विकल्प तलाशें और एक नई यात्रा के पड़ाव के प्रारम्भ में ठहरने की बजाय गति में और तीव्रता लायें। कुछ मामलों में हमें दक्षिण भारत से प्रेरणा लेनी चाहिए। दक्षिण भारतीय खाद्दय उत्पाद मसलन डोसा ,इडली ,उत्तपम ,सांवर  जो कि अंतराष्ट्रीय बाजार में अपनी पैठ बना चुके हैं। यहाँ से लेकर विदेश तक जगह -जगह साउथ इंडियन फ़ूड बाजार या रेस्टोरेंट अपनी एक अलग छवि का निर्माण कर चुके हैं। हालाँकि डोसा के साथ चरखा की समानता या तुलना करना काफी हास्यास्पद होगा पर क्या कभी हमने गौर किया है अपनी परम्पराओं की रक्षा को लेकर सजग दक्षिण भारतीय जो अधिकांशतः चावल या भात खाते समय हाथ की चारों उँगलियों सहित हथेली का प्रयोग करते हों क्या वो उस समय भी कभी खाने के साथ कांटे और चम्मच का प्रयोग करते होंगे। जब हमारे देश में इनका प्रचलन भी नहीं था या फिर उस समय जब हमने अंग्रेजों की देखादेखी उनकी नक़ल करना शुरू कर दिया। शायद तब भी नहीँ बल्कि देखा जाये तो वहाँ के लोग आज भी खाने की अपनी पारंपरिक शैली का प्रयोग करते हैं। आज भी वहां केले के पत्ते में रेसिपी परोस कर खाने का रिवाज है।
         अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उतरते समय फर्क सिर्फ सोच का था और सर्व करने का नया तरीका जिसमें जरा सा बदलाव किया गया और डोसे को केले के पत्ते की वजाय प्लेट में कांटे और चम्मच के साथ परोसा जाने लगा और डोसा बाहर निकलकर ना सिर्फ उत्तर भारत बल्कि अमेरिका] ब्राज़ील तक छा गया।  पर इस छोटे से बदलाव का किसी दक्षिण भारतीय ने विरोध नहीँ किया बल्कि उन्होंने शांत भाव से खाने का अपना पुराना पारंपरिक स्वरुप जारी रखा और आज डोसे के साथ दक्षिण भारतीय व्यंजन होने की पहचान बच्चे बच्चे की जुबान पर है। 
   
  देखा जाये तो डोसा सिर्फ एक उत्पाद है व्यक्ति नहीँ। चरखा भी एक उत्पाद है पर चरखा डोसे की तरह स्वतंत्र नहीँ। चरखे की डोर किस हाथ में है यह व्यक्ति &aव्यक्ति पर निर्भर है। सार यह है कि हथकरघा उद्द्योग कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक रोजगार देने वाला एक कुटीर उद्द्योग है। जोकि अपनी परंपरागत कलात्मकता के द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृणीकरण में महत्वपूर्ण योगदान करता है। कपास की खेती और पैदावार में  भारत को इसकी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक नाबार्ड से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में 38. 47 लाख हथकरघा बुनकर अपना जीविकोपार्जन हथकरघा बुनाई से कर रहे हैं। जिसमें 77 फीसदी महिलायें तथा 23 फीसदी पुरुष हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष भर में देश के अंदर तथा विदेशों में हथकरघा उत्पादों की प्रदर्शनी में काफी आय अर्जित हो जाती है। साथ ही विदेशी मुद्रा का सृजन भी होता है। चाहे बनारसी साड़ी हो या कांजीवरम सिल्क लखनवी चिकन हो या संबलपुरी सूट हैंडलूम के इन उत्पादों ने भारत की विविधता और समृद्धि में चार चाँद लगाए हैं। 
                                                                                                                               प्रतिभा कटियार 



रविवार, 15 जनवरी 2017

चर्चा-ए-चरखा

चर्चा-ए-चरखा
इस बार चर्चा ए खास है ।चर्चा का विषय है चरखा । चरखा के साथ दो विभिन्न काल व विभिन्न परिवेश किंतु एक ही प्रान्त में जन्मे दो नायकों के बीच तुलना का । पटकथा जिसने भी लिखी हो पर किरदार दमदार है। पिछले कुछ दशकों से गाँधी जी के वारे में बड़ी अजीबो गरीब बातें कहने सुनने लिखने वालों ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और पहली बार सचमुच ऐसा लगा है बापू को चरखे से प्रतिस्थापित करना किसी विस्थापन व त्रासदी के गहरे दर्द से गुजरने जैसा है।
      
           हालाँकि सरकार का मुख्य मकसद हथकरगा उध्योग को बढ़ावा देने का है । किंतु हथकरघा जनअभिव्यक्ति व जनमत का विषय बने उससे पूर्व देखा गया है इस तरह के प्रयोग देश में राजनीति का ही मंच तैयार कर रहे हैं । देश के सामाजिक आर्थिक विकास पर कोई बड़ा असर हो या ना हो पर इन घटनाओं को सतही ढंग से कवर करने में इलेक्ट्रानिक मीडिया के तमाम जनमाध्यम कोई कसर नहीँ छोडेंगे । 

        हाल ही में टीवी के एक वरिष्ठ व जाने माने पत्रकार ने हिन्दी अखबारों को लेकर एक टिप्पणी की जिसमें कहा गया क्या हिन्दी अखबार भी कचरा परोस रहे हैं । कुछ वर्ष पूर्व विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत जाने माने वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने भी एक साक्षात्कार के दौरान प्रेस की हालिया पत्रकारिता को लेकर निराशा जनक स्थिति की तस्वीर पेश की थी। 

          चिंता वाजिब है और मन में सवाल भी उठ रहा है क्या अखबारों की भूमिका सिर्फ लोगों के बयानों को लेकर उनका विश्लेषण और मूल्यांकन करने तक सीमित रह गयी है। टेलीविजन पत्रकारिता हो या प्रेस पत्रकारिता भले ही दोनों के मंचों में गहरी असमानता हो और दोनों को बहुत ही अलग वातावरण में कार्य करना पड़ रहा हो । पर सच तो यह है पत्रकारिता को जहाँ लोग बेहद सरल नज़रिये से देखते थे आज वो पहले की तुलना में बहुत अधिक जटिल हुई है । इसके पीछे चाहे राजनीतिक बाहुबलियों का दवाब हो या बाज़ार का प्रभाव या तमाम अन्य कारण। 

narendra modi charkha के लिए चित्र परिणाम        किंतु आखिर पत्रकारिता का मुख्य मकसद सिर्फ जनान्दोलन खड़े करना ही नहीँ बल्कि लोगों के बीच स्थिरिता, साझेदारी, सदभाव व आम सहमति पैदा करना भी है ।बात जहाँ चरखे और गाँधी जी की है तो आमजनमानस के मन में चरखे के पीछे सदैव बापू का प्रतिबिम्ब ही दिखाई देगा । दोनों राष्ट्रीय प्रतीक होने के साथ राष्ट्रीय धरोहर भी है। चरखे के बिना गाँधी जी अधूरे हैं और गाँधी के बिना चरखा । खादी उध्योग फले फूले मोदी जी के इस नवीनतम प्रयोग ने इस सोच को एक नयी दिशा दी है । गाँधी जी और चरखा कल भी एक दूसरे के पर्याय थे और आज भी प्रासंगिक हैं । प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा, नवीनता का सॄजन हो पर प्राचीनता का सरन्क्षण भी।
                                                                                                                                                                                प्रतिभा कटियार