रविवार, 15 जनवरी 2017

चर्चा-ए-चरखा

चर्चा-ए-चरखा
इस बार चर्चा ए खास है ।चर्चा का विषय है चरखा । चरखा के साथ दो विभिन्न काल व विभिन्न परिवेश किंतु एक ही प्रान्त में जन्मे दो नायकों के बीच तुलना का । पटकथा जिसने भी लिखी हो पर किरदार दमदार है। पिछले कुछ दशकों से गाँधी जी के वारे में बड़ी अजीबो गरीब बातें कहने सुनने लिखने वालों ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और पहली बार सचमुच ऐसा लगा है बापू को चरखे से प्रतिस्थापित करना किसी विस्थापन व त्रासदी के गहरे दर्द से गुजरने जैसा है।
      
           हालाँकि सरकार का मुख्य मकसद हथकरगा उध्योग को बढ़ावा देने का है । किंतु हथकरघा जनअभिव्यक्ति व जनमत का विषय बने उससे पूर्व देखा गया है इस तरह के प्रयोग देश में राजनीति का ही मंच तैयार कर रहे हैं । देश के सामाजिक आर्थिक विकास पर कोई बड़ा असर हो या ना हो पर इन घटनाओं को सतही ढंग से कवर करने में इलेक्ट्रानिक मीडिया के तमाम जनमाध्यम कोई कसर नहीँ छोडेंगे । 

        हाल ही में टीवी के एक वरिष्ठ व जाने माने पत्रकार ने हिन्दी अखबारों को लेकर एक टिप्पणी की जिसमें कहा गया क्या हिन्दी अखबार भी कचरा परोस रहे हैं । कुछ वर्ष पूर्व विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत जाने माने वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने भी एक साक्षात्कार के दौरान प्रेस की हालिया पत्रकारिता को लेकर निराशा जनक स्थिति की तस्वीर पेश की थी। 

          चिंता वाजिब है और मन में सवाल भी उठ रहा है क्या अखबारों की भूमिका सिर्फ लोगों के बयानों को लेकर उनका विश्लेषण और मूल्यांकन करने तक सीमित रह गयी है। टेलीविजन पत्रकारिता हो या प्रेस पत्रकारिता भले ही दोनों के मंचों में गहरी असमानता हो और दोनों को बहुत ही अलग वातावरण में कार्य करना पड़ रहा हो । पर सच तो यह है पत्रकारिता को जहाँ लोग बेहद सरल नज़रिये से देखते थे आज वो पहले की तुलना में बहुत अधिक जटिल हुई है । इसके पीछे चाहे राजनीतिक बाहुबलियों का दवाब हो या बाज़ार का प्रभाव या तमाम अन्य कारण। 

narendra modi charkha के लिए चित्र परिणाम        किंतु आखिर पत्रकारिता का मुख्य मकसद सिर्फ जनान्दोलन खड़े करना ही नहीँ बल्कि लोगों के बीच स्थिरिता, साझेदारी, सदभाव व आम सहमति पैदा करना भी है ।बात जहाँ चरखे और गाँधी जी की है तो आमजनमानस के मन में चरखे के पीछे सदैव बापू का प्रतिबिम्ब ही दिखाई देगा । दोनों राष्ट्रीय प्रतीक होने के साथ राष्ट्रीय धरोहर भी है। चरखे के बिना गाँधी जी अधूरे हैं और गाँधी के बिना चरखा । खादी उध्योग फले फूले मोदी जी के इस नवीनतम प्रयोग ने इस सोच को एक नयी दिशा दी है । गाँधी जी और चरखा कल भी एक दूसरे के पर्याय थे और आज भी प्रासंगिक हैं । प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा, नवीनता का सॄजन हो पर प्राचीनता का सरन्क्षण भी।
                                                                                                                                                                                प्रतिभा कटियार 

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