शनिवार, 28 अप्रैल 2018

परिवेश

मेरे आस-पास का परिवेश
घर से दूर अनजान, वीरान
जंगल में जैसे कोई मचान।
शून्य में ताकती आँखे
कुछ  बूढ़े , ठूँठ जैसे बेजान।
खेतों  में  लहराती  फसलें
श्रम  में  ड़ूबे किसान।
छोटी-छोटी दुकानें
चाय समोसा घाटी
दिनभर बेचते, थक जाते
और शाम तक उधारी में
ग्राहक चट कर जाते।
काम की तलाश में
जुगत लगाते नौजवान।
आपस में बैठकर बतियाते ,
आंयेंगे अपने भी अच्छे दिन,
एक दुसरे को धीरज बंधाते।
स्कूल में चहचहाते बच्चे
दस का पहाड़ा
एक सांस में सुनाते।
स्थानीय मान को
चुटकी में हल कर जाते।
आंधी आने पर
बाग में आम बीनने जाते।
                                  Pratibha Katiyar

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