शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

गंगोत्री - गोमुख की रोमांचक यात्रा और हिमालय दर्शन

हिमालय की गोद में बसी, चारों ओर से  वनाच्छादित, पर्वतों से घिरी गंगा के वेग से कल-कल करती गुंजायमान संगीत  की भूमि और बर्फ की सफेद चादरों से लिपटी ऊंचे ऊंचे पर्वतों की चोटी के सुंदर दृश्यों से सराबोर कर देने वाली गंगोत्री किसी भी प्रकृति प्रेमी, अध्यात्म प्रेमी और पर्वतारोहण के शौकीन व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेती हैl उत्तराखंड के चार धामों में से एक गंगोत्री, जिला उत्तरकाशी से 95 किलोमीटर दूर है यहीं से 18 किलोमीटर दूर पैदल रास्ता है मां गंगा का उद्गम स्थल गोमुख ग्लेशियर l गंगोत्री में एक और गोमुख से भागीरथी तो दूसरी ओर 17 किलोमीटर दूर केदारताल से केदार गंगा आकर मिलती हैं l इसी पावन धाम गंगोत्री और गोमुख ग्लेशियर जाने का अवसर सौभाग्य से मुझे मिला अक्टूबर के मध्य मेंl

            हमारी  यात्रा की शुरुआत 17 अक्टूबर 2007 को l वर्ष अधिक मायने नहीं रखता किन्तु अक्टूबर का अंतिम पक्ष जोकि हिमालय की यात्रा के लिए काफी ठंडा माना जाता है हालांकि यह वहां के लिए सिर्फ एक शुरुआत है लेकिन हम साधारण मानवों के लिए हड्डी गला देने वाली ठंड होती है, क्योंकि इसके बाद दीपावली के आसपास बर्फ जमने और रास्ता खराब होने के कारण प्रत्येक वर्ष गंगोत्री का मार्ग बंद कर दिया जाता  हैl इस यात्रा में मैं और मेरी बड़ी दीदी के साथ हमारे गाईड थे पूरा भारत भ्रमण कर चुके जीजाजी जिनके माध्यम से हमें स्वप्न में बसे हुए हिमालय के दिव्य दर्शन को साकार करने का अवसर मिल रहा था l

         सबसे पहले हमने उत्तरकाशी में पहुंचकर थोड़ा बहुत भ्रमण और रात्रि विश्राम किया l गंगा किनारे बसे इस शहर में रात भर गंगा की कलकल करती आवाज सुनी जा सकती है बाबा विश्वनाथ की उत्तर की काशी दो पर्वतों के बीच बसी हुई है जिसके एक और वरुणावत पर्वत है जहां प्रायः भूस्खलन होता रहता है जिसके कारण इस शहर का अस्तित्व खतरे में पड़ा है लेकिन प्रयास द्वारा इस पर्वत को बचाया जाता रहा है दूसरी ओर के पर्वत पर स्थित है नेहरू पर्वतारोहण संस्थान जो लगभग 6 किलोमीटर की ऊंचाई पर है यहां पर पर्वतारोहण का प्रशिक्षण दिया जाता हैl जीजाजी ने पर्वतारोहण का बेसिक और एडवांस कोर्स यहाँ से किया था तो वो अपनी यादें ताजा करने और हमें अपनी आगे की यात्रा के लिए मजबूत करने और सबसे बड़ी बात अगले दिन गंगोत्री के लिए 2:00 बजे की बस होने के कारण, हमने यहाँ तक की ट्रैकिंग की और बचे हुए समय का सदुपयोग इसे देखने में बितायाl यहां स्थित संग्रहालय में पर्वतारोहण की बहुत सारी जानकारी जुटाई जा सकती हैl तो  जीजाजी एक बैंक अधिकारी होने के साथ एक पर्वतारोही भी हैं, य़ह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ l

       यहां से वापस आकर हमने गंगोत्री के लिए बस से प्रस्थान किया मार्ग में हरे भरे पहाड़ों के बीच बहती निर्मल गंगा के साथ-साथ हमारी बस आगे बढ़ती जा रही थी मार्ग में अनेक दर्शनीय स्थल हैं जैसे गंगनानी, जहां गर्म पानी का कुंड है यह मान्यता है कि यहां स्नान करने पर चर्म रोग समाप्त हो जाता है इसके आगे हर्सिल है यहां  सेब से लदे हुए बाग और एक साथ दिखने वाले 10 झरने यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य को और भी अद्भुत बना रहे थे l हरसिल के आगे है लंका और भैरव घाटी, इसके साथ ही बर्फ की सफेद चादरों से लिपटी ऊंची ऊंची चोटियां दिख रही थी जो हमें गंगोत्री की समीपता का एहसास दे रही थी l आखिर शाम को 6:30 बजे हम लोग गंगोत्री पहुंचे उस समय तक रात्रि यहाँ अपने पैर पसार चुकी थी और बढ़ती ठंड की चुभन हमारा स्वागत कर रही थीl

       यहां पर ऑक्सीजन की मात्रा भी काफी कम है अधिकांश यात्री आगे गोमुख तक जाने का जोखिम नहीं उठाते और यहीं से दर्शन करके वापस लौट जाते हैं l हमने रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार गोमुख जाने का निश्चय किया l गोमुख समुद्र तल से 3892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और गंगोत्री से 18-19 किलोमीटर दूर है गंगोत्री से गोमुख का मार्ग गंगोत्री नेशनल पार्क के अंतर्गत आता है अतः वहां जाने से पहले प्रवेश द्वार पर एंट्री के रूप में ₹40 प्रति व्यक्ति शुल्क चुकाया l अनुमति सिर्फ गोमुख तक थी उसके आगे तपोवन का मार्ग बंद था l पूरा मार्ग अत्यंत ही रोमांचक और प्राकृतिक सुंदरता से भरा है यह मार्ग वैसे तो पैदल यात्रा का है लेकिन घोड़े खच्चर करके भी यहां तक जा सकते हैं यह घोड़े अधिकतम भोजबासा तक जाते हैं इससे आगे 5 या 6 किलोमीटर गोमुख तक पैदल ही जाना होता है क्योंकि आगे का पूरा रास्ता बोल्डर यानी शिलाखण्डों से निर्मित है l इसका मतलब है चट्टानों और पत्थरों के बीच आपको अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता हैl

        हमने गोमुख तक का मार्ग पैदल ही तय करने का निश्चय किया 18-19 किलोमीटर गोमुख और फिर वापस गंगोत्री इस तरह लगभग 40 किलोमीटर तक की पदयात्रा के लिए हमने पर्याप्त अभ्यास किया था क्योंकि इस रास्ते पर चलने के लिए मांसपेशियों को तैयार करना सबसे पहली आवश्यकता थी l हमें जहां भी अवसर मिलता हम पहाड़ों पर ट्रैकिंग करते l गंगोत्री से हम जो पानी गरम करवा के अपने साथ ले गए थे वह 5 मिनट के अंदर ही जीरो डिग्री सेंटीग्रेड का हो गया इतनी ठंड के कारण प्यास भी नहीं लगती थी लेकिन उसकी पूर्ति के लिए हम बीच-बीच में एक घूंट पानी मुंह में रख लेते हैं और चलते रहते थे जब वह अंदर गर्म हो जाता तो हम उसे गटक लेते थे ताकि डिहाइड्रेशन जैसी आम समस्या से बचा जा सके, गाइड की ओर से ऐसा ही निर्देश मिला था l

       9 किलोमीटर दूर 3660 मीटर की ऊंचाई पर आता है चीड़वासा  यहां तक चीड़ के  ऊँचे - ऊँचे  पेड़ हैं  इसके आगे भोजपत्र के पेड़ है यहां आने वाली यात्री इन भोज पत्रों को पेड़ की छाल से उचाड़ते रहते हैं जिसके कारण इन पेड़ों का जीवन खराब हो गया है। भोजबासा तक आते-आते पेड़ों की संख्या घटने लगती है और छोटी-छोटी घास शुरू हो जाती है इसके बाद यह घास भी समाप्त हो जाती है और पूरा मार्ग पथरीला चट्टानों वाला शुरू हो जाता है यहां पहाड़ों पर जमी हुई बर्फ पर चलने में बहुत सावधानी रखनी होती है क्योंकि जब यह पूरी तरह से जम जाती है तो कांच की तरह फिसलन भरी हो जाती है जरा सी भी असावधानी आपको खाई में धकेल सकती है।

      थोड़ी थोड़ी दूर के अंतराल पर बहते नाले को पार करते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे यह साफ स्वच्छ नाले पहाड़ की चोटियों पर जमी बर्फ के पिघलने से उत्पन्न होते हैं जो पहाड़ों पर झरने  का रूप लेते हुए सीधे भागीरथी में जाकर गिरते हैं इनमें से किसी किसी नाले पर कुछ मजबूत लकड़ियां रखकर पुल बना दिया गया है, तो कुछ नालों को ऐसे ही पत्थरों के सहारे पार करना पड़ता है। पहाड़ों के विभिन्न रूप इस मार्ग में एक साथ देखने को मिल जाते हैं शुरू में जहां यह हरे भरे पेड़ों से आच्छादित हैं तो कहीं पत्थर ही गिरते रहते हैं, कहीं इतने मजबूत चट्टानों वाले पहाड़ हैं जहाँ पेंड तो क्या घास भी उगनी मुश्किल है उसी तरह इन चट्टानों के रंग भी बदलते रहते हैं। पहाड़ों की इतनी विविधता एक साथ अगर किसी को देखनी हो तो इस मार्ग पर जरूर जाना चाहिए l

     गंगोत्री से ही एक चोटी भागीरथी -2 दिखाई देती है, आगे 10 किलोमीटर बाद शिवलिंग चोटी भी सूरज की किरणों से दीप्तिमान दिखाई देती हैl  ऐसे ही मनमोहक रास्तों का आनंद लेते हुए हम लोग चलते जा रहे थे अचानक रास्ते में हमें कुछ हिरण दिखाई दिए यह हिरण जिस जगह थे वह पत्थर गिरने वाले पहाड़ थे, मैं इन हिरणों को देखने में तल्लीन थी और जहां खड़ी थी वह बहुत ही संकरी जगह थी सिर्फ खड़े रहने भर की, तभी वहाँ से हटने के लिए मेरे पीछे आ रही दीदी ने जोर से आवाज देकर कहा, मैं जैसे ही एक कदम आगे बढ़ी, एक पत्थर आकर ठीक उसी स्थान पर गिरा जहां मैं खड़ी थी, वैसे वह पत्थर ज्यादा बड़ा नहीं था लेकिन इतनी वेग से गिरता हुआ पत्थर मेरा सिर फोड़ने के लिए पर्याप्त था, वह मेरा संतुलन भी बिगड़ सकता था, और मैं सीधे खाई से लुढ़कते हुए गंगा की गोद में जा सकती थी l वहां हम लोगों ने बिना रुके तेजी से चलते रहने में ही भलाई समझी क्योंकि अब तक तो पत्थर गिरने का क्रम और तीव्रगामी हो चला था l 

           इस रास्ते को पार करने के बाद हम लोग कुछ ही आगे बढ़े थे कि स्नोफॉल शुरू हो गई और वहां सूखे पहाड़ों, बहती नदी, और संकरे रास्ते के अलावा रुकने का कोई  स्थान नहीं था और भोजवासा अभी भी 3 किलोमीटर और दूर था। हम बिना विश्राम लिए थके हारे चलते जा रहे थे। थोड़ी ही देर बाद बर्फबारी रुक गई यह शायद हमारी यात्रा को और रोचक और यादगार बनाने के लिए थी l इस तरह हम लोग शाम 4:00 बजे भोजबासा पहुंच गएl अब तक पहाड़ों से धूप पूर्णतया जा चुकी थी और ठंड बढ़ती ही जा रही थी सूर्य की किरणों का प्रकीर्णन सिर्फ बर्फीली चोटियों पर ही  था l अब हमने भोजबासा में ठहरने का निश्चय किया क्योंकि गोमुख तक दिन रहते वापस भोजवासा लौटना किसी के लिए भी संभव नहीं था l

          भोजवासा में हम जहां रुके थे यह लाल बाबा का आश्रम थाl  आश्रम में उस दिन काफी यात्री रुके थे इनमें से अधिकांश यात्री सिर्फ पश्चिम बंगाल से आए थे बंगालियों की घुमक्कड़ प्रकृति के वारे में खूब सुना था आज देख भी रहे थे l सारे यात्री वहां मोबाइल का टावर ना होने के कारण अपने परिवार से बात करने के लिए चिंतित थे l कोई भी नेटवर्क ना होने के कारण वहां ऐसा लगा जैसे वाकई में यहाँ शांति है और सचमुच की असल शांति का अनुभव पहली बार हो रहा था l 

         ठंड वहाँ इतनी ज्यादा थी कि एक बार कमरे में घुसने के बाद बाहर निकलने की हिम्मत कर पाना तो किसी शूरवीर के बस की ही बात थी l चूँकि हमारा मकसद यहाँ तक आराम करने के लिए आना नहीं था इसका कई मायनों में महत्व था l मात्र जिज्ञासा के अतिरिक्त आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी य़ह महत्वपूर्ण था l संयोग से उस दिन नवरात्र की अष्टमी थी और हमारी हिंदू संस्कृति में इसका विशेष अर्थ होता है इसलिए मैंने पास ही गंगा किनारे जाकर थोड़ी देर ध्यान लगाने का निश्चय किया l मैंने ठंड से बचने के सारे उपाय किए और बाहर निकली भागीरथी की कल कल करती आवाज, विहंगम दृश्य, और उसके समीप बैठना किसी परम सौभाग्य से कम नहीं था, किसी तरह भागीरथी के किनारे पहुंचने के बाद यहाँ की असहनीय ठंड के आगे अनुकूलन करने में स्वयं को असमर्थ पाया l बस किनारे पहुंच कर थोड़ा सा जल हाथ में लिया पूरी श्रद्धा से मस्तक से लगाया और चारों ओर फैली सुंदरता को एक पल निहारा, ईश्वर को धन्यवाद दिया, और शीघ्रता से जाने में ही अपनी भलाई समझी।

          इतनी असहनीय ठंड से निपटने में कुछ ही दिनों पूर्व पढ़ी गयी पुस्तक संबल देने का काम कर रही थी पुस्तक प्रथ्वी के दक्षिणी ध्रुव अंटार्कटिका के वारे में थी - अंटार्कटिका एक रोचक और रोमांचक यात्रा जो एक वैज्ञानिक अरुण द्वारा स्वयं के अनुभव के आधार पर लिखी थी l पुस्तक में वहाँ की ठंड का जो वर्णन था उसके आगे यहाँ की ठंड से जूझने का हौसला मिल रहा था l वापस पलटते समय दूर ऊंचाई पर खड़े जीजाजी को बायनाकुलर और हैंडीकैम से चारों ओर के दृश्य का लुफ्त उठाते देखा वो इस कठोर वातावरण में भी काफी सहज थे उनके साथ पहले भी कई बार गंगोत्री से गोमुख, नंदनवन और तपोवन आने की यात्रा का अनुभव था l दीदी कमरे से बाहर नहीं निकली इतनी लंबी यात्रा की थकान, पैर की मांसपेशियों का  दर्द, घर की सुखद यादें और उसपर ये मौसम सर्द l मांसपेशियों के दर्द निवारण की तकनीक जो कुछ दिन पूर्व मैंने सीखी थी आज मुझे उसका प्रयोग करने और अपनी काबिलियत दिखाने का अवसर मिल रहा था किन्तु मैंने उनकी तकलीफ और बड़ा दी जब जल्दवाजी में मैंने बाम की जगह बैग में रखे सामान की किट में से किसी मेडीकेटेड टूथपेस्ट को निकाला और पैर में रगड़ दिया l 

        रात के खाने में आश्रम में फुल्का प्रसाद, दाल राम व सब्जी राम का आनंद लिया l  आश्रम के लोगों ने इसी नाम से सबको प्रेम से भोजन करवायाl रात में हम ने खिड़की से चंद्रमा की रोशनी से चांदी की तरह चमकते बर्फीले पहाड़ों का आनंद लिया l दिन में जहां ये चोटियां सोने की तरह दमक रही थीं तो अब ये चांदी में परिवर्तित हो चली थीं l

         सुबह जल्दी उठकर हम लोगों ने गोमुख की ओर प्रस्थान कियाl अब गोमुख हमसे सिर्फ 4 या 5 किलोमीटर दूर था और दूर से ही ग्लेशियर का ऊपरी भाग दिखाई दे रहा था हम लोग इसी ग्लेशियर की ओर उबड़ खाबड़ चट्टानों के बीच मार्ग तलाशते हुए चले जा रहे थे सुबह जल्दी पहुंच जाने के कारण हम लोग ग्लेशियर के एकदम निकट तक गए देर से आने वाले यात्री इतनी पास तक नहीं जा पाते क्योंकि धूप निकलने और तापमान बढ़ने के बाद ग्लेशियर से बड़ी-बड़ी चट्टानें स्वतः टूट कर गिरने लगती हैं और इतनी भयंकर आवाज आती है कि लोग डर जाते हैं। गंगा मां के उद्गम को इतना समीप पाकर मैं इतनी उत्साहित थी कि मुझे वहां के खतरे के बारे में ध्यान ही नहीं रहा इतने खराब रास्ते को मैं सबसे पहले इतनी जल्दी पार गयी मानो मेरे पैर में तो पंख लग गए।

        गंगा ग्लेशियर की गुफा से एक पतली धारा के रूप में निकलती है और इसका वेग बहुत ही तीव्र होता है मैं यहां तक आने के लिए और गंगा के मूल स्वरूप को प्रणाम करने के लिए बर्फ में पैर धंसाती हुई अंदर तक चली गई इस धारा के पहले काफी दूर तक स्नो बिछी हुई थी और उसके बाद ठोस बर्फ की मोटी चादर थी इसी चादर पर मैंने जैसे ही पैर रखे और थोड़ा सा गंगाजल हाथ में लेना चाहा वैसे ही बर्फ की चादर का एक बड़ा भाग टूट गया और मैं सीधे गंगा मां की गोद में संयोग से मेरे पीछे खड़े लोगों ने मुझे हाथ पकड़ कर खींच लिया और मैं बच गई यहां पर नीलकंठ का अनुभव काम आया है जो मैं अपने साथ अतिरिक्त जूते लेकर गई थी क्योंकि मेरे जूते मोजे पूरी तरह भीग गए थे और माईनस डिग्री तापमान में मेरे पैर एकदम शून्य हो चुके थे l दरअसल कुछ दिनों पूर्व विश्वविद्यालय से हमारे विभाग की ओर से सहपाठियों और शिक्षकों की टोली ने ऋषिकेश के आगे नीलकंठ की पदयात्रा की थी जिसमें नदी और पत्थरों के बीच चलने से मेरे नए ब्रांडेड जूते का सोल निकल गया और पूरे रास्ते मेरे सहपाठियों द्वारा जुटाए गए रस्सी, धागे को जूते में बाँध कर मैंने वो यात्रा की थी l उस यात्रा में अपनी क्षमता और उन जूतों का परीक्षण भी हो गया था जो शायद ट्रेकिंग के उद्देश्य से ही खरीदे थे l 

          खैर थोड़ा सामान्य होने के उपरांत, हम लोग ग्लेशियर के एकदम निकट मुश्किल से 5 मिनट और रुकेl ज्यादा रुकना खतरे से खाली नहीं था l थोड़ा दूर आकर हमने माँ गंगा की पूजा अर्चना की l हमारी इच्छा तपोवन तक जाने की थी लेकिन मार्ग बंद होने के कारण वहां जाना संभव नहीं था, इसलिए हम लोग दूरबीन से तपोवन के दर्शन करके और जीवन के इस दुर्लभ पल को मन में संजो कर वापस गंगोत्री की ओर रवाना हुए l वापसी की यात्रा उतनी मजेदार तो नहीं रही क्योंकि बर्फ में भीग जाने के कारण तेज बुखार के चलते पैरों में थोड़ी शिथिलता आ गयी थी और पहले की अपेक्षा कदम थोड़े डगमगाते हुए प्रतीत हुए l 

 जब हम गंगोत्री पहुंचे, तो रात्रि के लगभग 9:00 बजने को थेl होटल में गर्म पानी का प्रबंध था l वापसी के बाद हमें पुनः गंगोत्री धाम मंदिर के दर्शन भी करने थे, तो किसी तरह हाथ मुंह धो कर थोड़ा विश्राम के उपरांत हम पुल से नीचे उतर के मंदिर में आए l मंदिर में पुजारी समेत कुछ ही लोग थे जो अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ पहाड़ी लोकगीत में कीर्तन कर रहे थेl गंगा की तीव्र लहरों की ध्वनि के साथ गीतों का तालमेल वातावरण को और दिव्य, मधुर व संगीतमय बना रहा थाl गीत के बोल तो याद नहीं पर आज भी उस गुंजायमान ध्वनि की स्मृति मन में कंपन, रोमांच और श्रद्धा उत्पन्न करती है l होटल वापस जाकर हमने सबसे पहले खाने का आर्डर किया l अब हमारा सारा ध्यान भूख पर ही केंद्रित थाl विज्ञान की छोटी कक्षाओं में पहाड़ों में देर से खाना पकने के बारे में पढ़ा था आज उससे वास्ता भी हो रहा था l दो-तीन घंटे बीतने के बाद भी... भोजन की प्रतीक्षा करते- करते लगा सब सो गएl एकदम शांत वातावरण में सिर्फ भागीरथी की कलकल करती आवाज सुनाई दे रही थीl तो सब घोड़े बेच के सो गए पर मेरे तो पेट में चूहे कूद रहे थेl मेरी आँखों से नींद ओझल थी किन्तु मैंने वो तीन घंटे कल कल करती भागीरथी की ध्वनि के साथ बिताए l आखिर 12:00 बजे के बाद होटल के कर्मचारी ने कमरे को नॉक किया तो जान में जान आई गरमा गरम आलू के पराठे और मटर आलू की सब्जी खाकर सोए तो सीधे सुबह आँख खुली और हमारे जाने का समय हो चला था, बस तैयार खड़ी थीl और हम इस कामना के साथ वापस चल दिए साक्षात गंगा मां के दर्शन का सौभाग्य हर एक भारतवासी को मिले और वह गंगा मां के प्रति कर्तव्यों के निर्वाह का संकल्प लें l

जय माँ गंगे 🙏🙏🙏

         


































3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सजीव यात्रा विवरण किया है। पढ़ कर लगा कि मैं भी एक सहयात्री के रूप में इस यात्रा में शामिल हुआ था।

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  2. पढ़ते पढ़ते आज मैं एक वार और भगीरथी के दर्शन कर आयी जीवंत यात्रा वृतांत लिखा पढ़कर मन प्रफुल्लित
    और रोमांच से भर गया कि मैं भी इस यात्रा की पथिक थी ॥������

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  3. पढ़कर मैं एक वार और माँ भगीरथी के दर्शन कर आयी बहुत ही जीवंत यात्रा वृतांत लिखा है मन प्रफुल्लित और रोमांच से भर गया कि मैं भी इस यात्रा की पथिक थी ॥������

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