ना जाने क्यों
मिलता ये सन्देश बार बार
और देखूं ये संसार
करते हैं सब परिभ्रमण
अपनी ही धुरी के ओर छोर
स्वार्थ संकीर्णता अहम जड़ता
इनसे भरे हैं लोग हर ओर
ना जाने कौन
थामे है सबकी डोर
नाच रहे हैं ऐसे
जैसे कठपुतली हों सब ओर
तनिक नहीं लेते विश्राम
और ना लेते जीवन की थाह
टकरा टकरा के सिर फोड़ रहे
चिंगारी में ही जश्न मना रहे
बिसराये बैठे हैं उस धन को
अंतस में ही है फैला प्रकाश
Pratibha Katiyar