मंगलवार, 2 जून 2015

किसान

किसान 
हे अन्नदाता
जब सुनती हुँ तुमने,
कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में,
आत्महत्या कर ली,
तो रूह कांप जाती है,
जब सुर्ख़ियों में यह घटना,
समाचार के रूप में आती है । 
पहले तो धिक्कारती हूँ,
तुम्हारी कमजोर कायर अवस्था पर,
फिर बाद में नजर दौड़ाती हूँ,                         
इस देश की मूल व्यवस्था पर।
क्या यही वो देश है,
जिसकी खातिर लोग शहीद हुए,
क्यों दी उन्होंने क़ुरबानी,
जब दफ़न ही होनी थी उनकी सोच पुरानी।
क्या कमी रह गयी,
जो देश की आधी आबादी,
आज भी उपेक्षित रह गयी।
पड़ लिख कर सब निकल लिए,
क्यों जमीन से नाता जोड़ें,
साहूकार और सूदखोर से,
अपना सिर फोड़ें ।
कभी सूखा, बाढ़ तो कभी फसल के कम दाम,
भाग्य भरोसे नफा नुकसान ।
आमदनी का नहीं कोई स्थिर हिसाब,
बस इसी गणित में खप जाती,
जीवन की पूरी किताब ।
कुछ चले गए अपनी जड़ें भी छोड़ गए,
जो बचे पड़ लिख कर शहर जा बसे,
खेती बाड़ी से मुँह मोड़ गये ।
कुछ सरकारी बाबू जी बनकर,
दफ्तर से रिश्ता जोड़ रहे,
तो व्यापार की एक भनक पाकर,
अच्छी कमाई के अवसर खोज रहे ।
अब कौन सुध ले खेत खलिहान की,
जब नहीं है पूछ इसके आन बान और शान की ।
बेटा बाहर जब पड़ने जाता ,
और पिता का पेशा किसान बताता ,
तो लगता जैसे,
कर दिया गया हो बिरादरी से बाहर,
नहीं इधर कोई तुम्हारी कदर।
यह तो उपेक्षा का छोटा नमूना,
जहाँ किसान तो बस किसान है,
ना तो वो सरकारी बाबू,
और ना बिज़नेसमैन की पहचान है ।
उपेक्षा के यही दंश वर्षों से झेल रहे,
किसान अपनी अस्मिता पाने को जूझ रहे।
वर्षों पुराना यह भेद,
आज आत्महत्या के रूप में प्रकट हुआ,
जब स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी,
तो अपनी गलती का भान हुआ ।
सरकार ने सब्सिडी नहीं दी,
बीज मशीन और बुआई जोत पर,
मीडिया को भी नहीं भाई,
घिसी पिटी बातों से चलाये कलम,
उनपर कुछ नीरस लिखकर।
खुद किसान संगठित नहीं हो पाये,
और राजनीतिक दांव-पेंच का शिकार हो गए,
बजाय विकास खेत खलिहान के,
बनिया ब्राह्मण ठाकुर यादव को,
अपना बहुमूल्य वोट दे गए ।
जातिवाद, भाषावाद, धर्मवाद और प्रांतवाद की,
ऐसी फसल बोई,
कि  उपज भी उसी में होने लगी,
सेठ, साहूकार, और सूदखोर की,
वुरी नजर भी इनपर पड़ने लगी।
घोर अशिक्षा कर्ज में डूबी,
मरघट सी हवा फिर चलने लगी,
एक एक कर जान गंवाने,
की फिर तो होड़ लगी ।
क्या है कोई समाधान,
जो बचा सके मामूली से किसान की जान,
बता सके उसको अन्नदाता की पहचान,
दे सके विश्वास हौसला उम्मीद,
अच्छे दिन हैं तुम्हारे बहुत करीब।
थोड़ा सब्र करो मेहनत से मुँह ना मोड़ो,
अपना आत्मविश्वास और हौसला बुलंद करो।
खेती बाड़ी में नया कुछ सूत्र जोड़ो,
अपनी कमाई का हिस्सा बैंक में छोड़ो।
पड़ो लिखो खेती बाड़ी भी करो,
ना खुद कर सको तो किसानों से नाता जोड़ो,
दो सम्मान एकता और भाईचारे का,
मिल जुल कर करो सिंचाई पैदावार,
बिचौलियों से कर लो दूरी,
इन्हें तो करना है व्यापार ।
खुद अपनी उपज को मिलजुल कर सरंक्षित करो,
और सीधे उचित दामों के साथ जनता से मिलो,
इन्हें भी चाहिए सुरक्षित ताजा कम दाम की उपज,
बनेंगे तुम्हारे इनके संग घनिष्ठ सम्बंध,
गन्ना , आलू , धनिया, टमाटर और शकरकंद,
आखिर यही तो चाहिए दो जून की रोटी के संग ।
हे अन्नदाता यही तो है खुश रहने का मूलमंत्र,
दाल-रोटी से ही भरता पेट,
क्यों नहीं समझता ये तंत्र।






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