क्या हम सचमुच सतत विकास में पिछड़े हैं।
आंकड़े चौंकाने वाले भले ही ना हो पर हमें सोचने पर विवश करते हैं सतत विकास सूचकांक में भारत 149 देशों में 110वें स्थान पर है। जीडीपी के मामले में हम दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था हैं पर मानव संसाधन विकास में हम अपने कुछ पड़ोसी देशों से भी पिछड़े हैं सीधा सा कारण है हमारा देश दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी का भरण पोषण करता है विकास के आज के वक्त के सबसे प्रचलित लोकप्रिय मॉडल सतत विकास को लेकर की जा रही अवधारणा कोई नई नही है। प्राचीन काल से ही हमारा देश भोगवादी प्रवृत्ति से परे सम्यक अवधारणा व उपभोग के बजाय समुचित उपयोग पर बल देता रहा। सतत विकास को लेकर किये जा रहे आकलन के पीछे मूलभूत अंतर जो दिखाई देता है वह यह है कि हमारा सारा नियोजन ज्ञान को हासिल करने में लगा रहा और अन्य देशों ने नये नये बाजार निर्मित करने में अपना जोर लगाया। बाजार का निर्माण करने में हम भले ही पीछे रहे हों पर आज हमारा देश एक बड़े बाजार के रूप में सबको खूब लुभा रहा है। आज भी विरासत से मिले ज्ञान की कुछ पारंपरिक बातें हमारे समाज की प्रचलित अवधारणाओं में हैं। यह इतनी सुदृढ़ और व्यवस्थित हैं कि इन पर कोई अतिरिक्त संगठन खड़ा करने की जरूरत नहीं है। पर क्या कारण है कि ना सिर्फ नये मॉडल गढ़ने की हवा को बल मिल रहा है बल्कि नये ढ़ॉचे निर्मित भी हो रहे हैं। नये संगठन खड़े हो रहे हैं कहीं ना कहीं हमने इस बात को भुला दिया है विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान को हमने रूढ़िवादी मानसिकता से देखना शुरू कर दिया है। और अब हमारी हर कोशिश उस ज्ञान को ठोकपीट कर बाजार के काबिल बनाने की है। भले ही यह नये विकसित मॉडल हमारी समृद्दि में विशेष योगदान ना दें पर भविष्य में इन मॉडलों के ध्वस्त अवशेष एेतिहासिक समृद्दि की गवाही तो देंगे ही।
********** प्रतिभा कटियार
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