शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

सूचना बॉम्बार्डमेंट नहीं है जरुरी है सूचना स्रोतों का सही चयन और परस्पर तालमेल

सूचना बॉम्बार्डमेंट नहीं है जरुरी है सूचना स्रोतों का सही चयन और परस्पर तालमेल 


Let us finish the culture of paid news; otherwise it will finish us in coming days. 
                                                                                 p . Sainath                                   
सूचना के तमाम स्रोतों के बीच सन्देश कहीं छुप गया है और वो अपनी पहचान अहमियत व प्रासंगिता खो चुका है। कुछ लोगों का  मानना है सूचना बॉम्बार्डमेंट की तरह है। पर यह पूरी तरह सच नहीं आम तौर पर यह सोच उन लोगों की है जो सूचना के तमाम स्रोतों की विश्वसनीयता और गंभीरता को लेकर पशोपेश में हैं और अवांक्षित दवाव महसूस कर रहे हैं। सूचना के इन तमाम जनमाध्यमों खासकर सोशल मीडिया को सार्थक सन्देश देने की वजाय गप्पबाजी व अविश्वसनीय सूचनाओं का अम्बार मानते हैं। हालाँकि मीडिया कन्वर्जेन्स के दौर में ना सिर्फ यह पहचान कर पाना मुश्किल हो गया है कौन सा जनमाध्यम अधिक उपयुक्त है और किस पर अधिक निर्भर रहा जाये, साथ ही यह निश्चित कर पाना भी मुश्किल है कौन से सन्देश विशुद्ध रूप से किस मीडिया के कंटेंट ग्रुप से हैं। 

           यदि हम प्राचीन काल के पारंपरिक स्रोतों पर नजर डालें तो राजाओं के विशेष दूत द्वारा भेजे गए शाही फरमान से लेकर भित्तिचित्र व अशोक के शिलालेखों तक का अनोखा प्रयोग हर दौर में होता दिखाई देता है।और इनकी लोकप्रियता और संप्रेषणशीलता के प्रभाव को लोगों ने समय समय पर स्वीकार भी किया  है। पर पिछले कुछ वर्षों के आजादी के दौर से लेकर अब तक भारत में प्रिंट मीडिया के विकास, योगदान और भागीदारी  को नकारा नहीं जा सकता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम दृश्य -श्रव्य उपकरणों और इधर नव मीडिया के आने के बाद भी इसकी प्रसार संख्या ,लोकप्रियता, उपयोगिता और विश्वसनीयता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है।

             हाल ही में जारी भारतीय प्रेस पंजीकरण की रिपोर्ट में प्रिंट प्रकाशन की पंजीकृत संख्या और सर्कुलेशन की बढ़ती रफ़्तार ने इस आशंका को  गलत साबित कर दिया कि दृश्य -श्रव्य व् डिजिटल माध्यमों के प्रसारण ने प्रिंट मीडिया को प्रभावित किया है। बल्कि प्रिंट मीडिया ने अपने आप को आधुनिक दृष्टिकोण के साथ  नए परिवर्तन और चुनौतियों का सामना करने में अधिक सक्षम बनाया है। अपनी कार्यप्रणाली में इसने सूचना प्रौद्दोगिकी को भी सम्मिलित किया है जिसके परिणामस्वरूप इसमें तेज गति और सस्ती कीमत के साथ बेहतर कवरेज प्रणाली भी विकसित हुई है। शिक्षा के प्रसार ने प्रिंट मीडिया के पाठकों की संख्या भी बड़ाई है। 


         अपनी तमाम विशेषताओं के चलते प्रिंट प्रकाशनों की एक अलग मौलिक पहचान है। यदि हम नियमित रूप से अख़बार पढ़ते हैं तो सूचना ना सिर्फ हमारे लिए आनंद की वस्तु है बल्कि  एक विशेष समय पर नियमित अध्ययन हमारी दिनचर्या और जीवन शैली को भी नियंत्रित करता है। जीवन प्रबंधन में अख़बार की भूमिका का अपना अलग योगदान है। ज्यादातर अच्छे और पाठकों के बीच गंभीर पहचान रखने वाले अख़बारों में कंटेंट से लेकर डिजाइन व लेआउट का निर्माण इस तरह किया जाता है कि पाठकों को संचार के सभी अवयवों की आवश्यक खुराक मिल जाती है। सूचना, शिक्षा, मनोरंजन के परस्पर तालमेल से ना सिर्फ पाठकों की जिज्ञासाओं का समुचित समाधान होता है बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, वित्त, पर्यावरण, खेलकूद, तकनीक व अनेक रोचक विषयों की जानकारी पाठकों का ज्ञानवर्धन भी करती है। 


       वास्तव में अख़बार और ज्यादा पढ़ने व जानने को प्रेरित करते हैं। प्रकाशित सामिग्री के प्रति विश्वसनीयता के चलते संदेशों की ग्रहण-शीलता भी अधिक है। हालाँकि व्यावसायिकता के चलते तमाम अख़बारों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ा है और इसने अपने स्वरुप में व्यापक फेरबदल किया है। इस पर औध्योगिक लामबंदी या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति विशेष झुकाव तथा पूरी तरह व्यावसायिक होने का आरोप भी लगता है।पेड न्यूज़ कल्चर ने पत्रकारिता की मूळ आत्मा को ही भारी क्षति पहुंचाई है जिसने एक अलग नकारात्मक वातावरण को जन्म दिया है।  फिर इसमें काम करने वाले पेशेवर, गैर पेशेवर और वो  तमाम लोग भी हैं जो अपने प्रोफेशन से संतुष्ट नहीं हैं और इसमें सुधार या बदलाव चाहते हैं।सकारात्मक और नकारात्मक जैसे आधुनिक  भारतीय दर्शन ने समाचारों और घटना की रिपोर्टिंग की तटस्थता को भी प्रभावित किया है। और अक्सर इन दोनों के संतुलन के बीच नकारात्मकता का पलड़ा भारी पड़ जाता है। 


          नकारात्मकता का दवाव हमें गहरे अवसाद में धकेल रहा है इसलिए एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जो लोग वैचारिक प्रदूषण मुक्त भारत का सपना देखते हैं उन्हें पहले स्वयं स्वकेंद्रित सोच से बाहर आकर सबके बीच बातचीत और परस्पर वार्तालाप व सीधा संवाद का निर्माण करना होगा। सारी नकारात्मकता का ठीकरा किसी एक पर उड़ेल कर सामाजिक उत्तरदायित्व बोध से किनारा नहीं किया जा सकता। अगर हम वास्तव में लोकतंत्र के सजग प्रहरी का निर्माण करना चाहते हैं तो सबसे पहले उन परिस्थितियों पर जरूर विचार करना चाहिए जिसमें कमजोर से लेकर दबंगों, गुप्तचरों, अवसरवादिता से घिरे लोगों और तमाम तरह की बाहरी व आन्तरिक नकारात्मक बातों को पनपने का अवसर मिलता है। 

       संचार के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को संवादहीनता या किसी वैचारिक निर्वात के दौर से गुजरने की पीड़ा को वो लोग नहीं समझ सकते जो इन तमाम विसंगतियों को भी व्यावसायिक दृष्टिकोण से नाप तौल कर अपना फायदा उठाने की फ़िराक में रहते हैं। पेशेवर लोगों को एक मजबूत इकाई बनकर एक दूसरे का मोरल सपोर्ट और नैराश्य भाव त्याग कर आशा का संचार करने पर भी ध्यान देना होगा। यदि आप संचार के क्षेत्र में कार्यरत हैं तो संवाद कायम करना होगा ना कि सम्राट किल्विष और शक्तिमान की भांति  अँधेरा करने और दीपक जलाने बुझाने की वकालत। 


                                                                      *****    प्रतिभा कटियार 

             

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