मंगलवार, 17 अगस्त 2010

वन्य जीवन का सनातन विधान

जिओ और जीने दो की अवधारणा तथा पौधौं व जंतुओं की रक्षा एवं सरंक्षण की भावना हजारों वर्षों से चली आ रही है। ईशा के तीन सौ वर्ष पूर्व चाणक्य ने अर्थशास्त्र में लिखा कि ईधन के लिए पेड़ काटना, पत्तियां तोड़ना,जंगल जलाना,जीवों को मारना तथा उनकी खाल उतारना वर्जित है क्योंकि इससे जंतुओं का जीवन दुष्प्रभावित होता है और प्रकृति का नाजुक संतुलन बिगड़ता है। सम्राट अशोक ने भी इनका महत्व समझा तथा जंतुओं के शिकार को प्रतिबंधित कर दिया उन्होंने समस्त सरंक्षित जंतुओं के नाम स्तंभों पर खुदवाये। भारत का पहला सरंक्षण नियम अशोक के समय ही लागू किया गया। उन्होंने कई जंतुओं के शिकार पर प्रतिबन्ध लगाया जिसका प्रमाण उनके शिलालेख में अंकित है। इस तरह भारत में जन्में हिन्दू बौध तथा जैन धर्म जीव जंतुओं की रक्षा में हमेशा एक रहे।

वस्तुुत: भारत जीवों के लिए स्वर्ग रहा है। धार्मिक विश्वास पौराणिक कथाओं व लोककथाओं द्वारा भारत ने पर्यावरण सरंक्षण का नियम लागू किया। प्रथ्वी , जल ,अग्नि , वायु आकाश इन पंच तत्वों का महत्व बहुत पहले समझ लिया गया तथा इन्हें देवताओं का दर्जा दिया गया। इस तरह से इन प्राकृतिक संसाधनों के प्रति मानव मन को जोड़ा गया व इनकी देखवाल का जिम्मा दिया गया। कई जंतुओं को भी इसलिए सरंक्षण मिला था क्योंकि यह विश्वास किया जाता था की वे ईश्वर से सम्बंधित हैं जैसे गणेश से चूहा व हाथी, शिव व विष्णु से सर्प , ब्रह्मा व सरस्वती से हंस , दुर्गा से सिंह , कृष्ण से गाय व अन्य देवी देवताओं के वाहन किसी न किसी जंतु को। इस तरह से प्राकृतिक संसाधन व जीव जंतुओं को सरंक्षण देने का तरीका हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों का इनके अविविवेकपूर्ण उपयोग व संहार को रोकने का बुद्धिमत्तापूर्ण व अद्वितीय तरीका था ।

पुरानो में वर्णित विष्णु के मत्स्य , वराह के रूप में अवतार जंतुओं के विश्व को बचाने में किये गए योगदान को दर्शाते हैं । जल एक महत्वपूर्ण संसाधन है अता गंगा व यमुना की देवियों की तरह पूजा होती है तथा इनके उद्गम को श्रेष्ठ तीर्थ माना जाता है । पीपल , केला तथा विल्व के वृक्ष के साथ जुदा धार्मिक महत्व सर्वज्ञात है । भारत में भोजन में भी शाकाहार पर बल दिया गया है। इन विश्वासों से ही भारत में पेड़ पौधौं व जीवों का सरंक्षण हो पाया । यही कारण है कि भारत अपने वन्य जीवों की द्रष्टि से विश्व के सम्रद्ध्तम देशों में रहा हैकिन्तु वर्तमान में आये दिन जल , जंगल व जानवर की विलुप्त होती व घटती संख्या ने सोचने पर विवश कर दिया आखिर ऐसी कौन सी परिस्थितियां उत्पन्न हुई की जिस देश में लम्बे काल से ऋषि मुनियों ने जीवन के रहस्यों और मनुष्य के भविष्य पर ध्यान दिया जहाँ वेदों जैसे पवित्र ग्रन्थ लिखे गये जहाँ बुद्ध हुए और उनके अहिंसा प्रेम व करुणा का सन्देश पनपा वहीं वनस्पतियाँ व जंतु कम कैसे होने लगे ।

पूर्व में हुए अनेकों विदेशी आक्रमण व उनसे जन्मी नै विचारधारा , राजाओं द्वारा अपने शाही शौक के लिए किया गया शिकार , अंग्रेजों द्वारा युद्ध के संसाधन उपलब्ध कराने हेतु जंगलों की कटाई हथियार बनाने के लिए जीवों की हत्या या फिर व्यापार के लिए जानवरों एवं लकड़ी की अवैध तस्करी या फिर वैशिवक होड़ । कारण कितने भी हों किन्तु इसके परिणाम की भयावहता के वारे में कल्पना करना भी कठिन है की इनके विना हमारे भविष्य का जीवन कैसा होगा । जीवन होगा भी या नहीं आज जब पूरा विश्व पर्यावरण प्रदुषण की मार से ट्रस्ट है तब हमें सोचना होगा क्या इस ज्वलंत समस्या के प्रति हम भारतीय जिम्मेदार नहीं । हमारा कोई भी ज्ञान प्रकृति को क्षति पहुँचाने की ओर नहीं मुदा था लेकिन विरासत में मिले इस ज्ञान को पुरे विश्व में फैलाने व बाँटने में हमने बहुत कंजूसी की । इसकी क्षतिपूर्ति के लिए आज से प्रत्येक को अपने हिस्से की पर्यार्वर्नीय नैतिकता का दायित्व निभाना होगा तभी हम धरती माँ का कर्ज चूका सकते हैं और तभी हम योग्य संतान की तरह इसके पर्यावरण रूपी आँचल की सुखद क्षाया पा सकेंगे । प्रतिभा कटियार

1 टिप्पणी:

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