रविवार, 3 दिसंबर 2017

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निदान भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में

मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निदान भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में 
प्रतिभा कटियार
Related imageआये दिन हममें से अधिकांश लोग प्रायः किसी न किसी अंतर्विरोध का सामना करते हैं तो मन अनायास ही उसके समाधान की ओर निकल जाता है।  गहराई में जाकर पता चलता है कि  समस्या के पीछे या तो कोई अकल्पनीय क्षण होता  होता है या फिर मानव  मन की परिकल्पना से उपजी संघर्ष की मनोदशा ऐसी परिस्थिति में दिखाई देता है हर ओर लोग अंतर्विरोध से जूझ रहे होते हैं।  आखिर क्या किया जाए इन अंतर्विरोधों का ऐसे अवसर पर आपको कोई ना कोई व्याख्यान  देते हुए दिख जाएगा। तर्क तथ्य प्रमाण दृष्टांत आदि का हवाला देकर मस्तिष्क को बांधकर हम अपनी हालत किसी प्राचीन दार्शनिक की भांति बना लेते हैं और प्रकृति के नियम को अपने सर को पूरा ब्रह्मांड समझ कर उसके अंदर ही खोजने का प्रयत्न करते हैं  कुछ हद तक हम समस्या पर काबू पा लेते हैं किंतु इससे अनिवार्य रूप से यह खतरा उत्पन्न होता है की विश्व का इस तरह से बनाया गया चित्र जो  हमारी परिकल्पना में होता है वास्तविक चित्र से  भिन्न ही होता हैl
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हल  प्रयोग से निकलना चाहिए 
तमाम तरह के मनोवैज्ञनिक  जड़त्वों  का सामना हमें करना पड़ता है और संघर्ष करते-करते समस्या के अंतिम समाधान की ओर जाने से पहले हमारी गति क्षीण हो जाती है। हमारी सोच नजरिया वक्तव्य श्रवण और दर्शन की क्षमता किसी संकीर्ण परिधि में बंध जाती है और हम चाह कर भी मंजिल की ओर नहीं पहुंच पाते मस्तिष्क में रासायनिक तत्वों का निर्माण शुरू हो जाता है और फिर टूट फूट मरम्मत का दौर शुरू हो जाता है ऐसे में लोग समस्याओं से घिरे हुए दिखाई देते हैं। भौतिकी के किसी भी सिद्धांत का सर्वोत्तम पारखी प्रयोग होता है। 
कैसे करें प्रकाश का प्रसरण 
Image result for man in standing sketch तमसो माँ ज्योतिर्गमय  अंधकार से प्रकाश की ओर गमन या अंधकार में ही प्रकाश का प्रसरण कैसे होना चाहिए ऐसे तर्कों से सीमित ना होकर प्रयोगों की ओर ध्यान देना चाहिए जो यह दिखाएंगे कि इन स्थितियों में प्रकाश का प्रसरण वास्तव में कैसा होता  है। ऐसा एक प्रयोग जो हमारे लिए सरल है क्योंकि हम स्वयं एक गतिमान पिंड पर रहते हैं। सूर्य की परिक्रमा में रत पृथ्वी किसी भी तरह सरल रेखा में गति नहीं करती और इसलिए किसी अन्य प्रयोगशाला के सापेक्ष स्थायी विरामावस्था में नहीं हो सकती। 
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इसलिए पृथ्वी पर प्रकाश के प्रसरण का अध्ययन करने का उद्देश्य रखते हुए हम वास्तव में प्रकाश के प्रसरण का अध्ययन एक गतिमान प्रयोगशाला में कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त हमारी परिस्थितियों में इस प्रयोगशाला का वेग अधिकतम है - 30 किमी प्रति सेकेण्ड। पृथ्वी का उसके अक्ष के गिर्द घूर्णन इस वेग में आधा किमी प्रति सेकेण्ड का अंतर उत्पन्न करता है जिसकी हम उपेक्षा कर सकते हैं। प्रश्न उठता है पृथ्वी पर खड़े किसी व्यक्ति की बराबरी क्या एक चलती रेलगाड़ी के साथ कर सकते हैं ?  
क्या हम ठहर गए हैं ? 
                               इस अंतर्विरोध के चलते हम अपनी खोज आगे नहीं बढ़ा पा रहे थे क्या हम ठहर गए हैं ? रेलगाड़ी सरल रेखा पर समरूप गति से चल रही थी और पृथ्वी वृत्ताकार पथ पर चल रही है फिर भी हम पृथ्वी की बराबरी रेलगाड़ी के साथ कर सकते हैं।
Image result for physics light velocity                       इन दोनों प्रेक्षकों को कोई दूर जाकर अध्यन करे तो उसे दिखाई देगा कि प्रकाश का आचरण पृथ्वी पर भी ठीक वैसा ही है जैसा रेलगाड़ी में। 

प्रकाश प्रसरित होता है समान वेग से 
                 सन 1881 में एक महान भौतिकविद माइकल्सन ने एक प्रयोग किया उन्होंने पृथ्वी के सापेक्ष प्रकाश के वेग को उसकी विभिन्न दिशाओं में पर्याप्त उच्च शुद्धता से नापा। वेगों के छोटे अंतर को पकड़ने के लिए उन्हें बहुत सूक्ष्म प्रायोगिक तकनीक का उपयोग करना पड़ा था।
                      प्रयोग की शुद्धता इतनी अधिक थी कि वेगों के अनुमानातीत सूक्ष्म अंतर को भी ज्ञात किया जा सकता था। माइकल्सन का प्रयोग उस समय से बिल्कुल भिन्न स्थितियों में दोहराया जाता रहा है जिससे सर्वथा अप्रत्याशित परिणाम सामने आये। पता चला कि गतिमान प्रयोगशाला में प्रकाश का प्रसरण वास्तव में बिल्कुल दूसरे ढंग से होता है वैसे नहीं जैसे हमने अपने तर्क में पहले सिद्ध किया था। माइकल्सन ने यह ज्ञात किया कि गतिमान पृथ्वी पर प्रकाश सभी दिशाओं में सर्वथा समान वेग से प्रसरित होता है।
प्रकाश की त्रासदी - प्रकाश तत्काल नहीं फैलता 
                   प्रकृति का एक महत्वपूर्ण नियम जिसे गति की सापेक्षिकता का सिद्धान्त कहा जाता है, सिद्धान्त है एक दूसरे के सापेक्ष सीधी और समरूप गति से चलने वाली सभी प्रयोगशालाओं में पिंड की गति समान नियमों का पालन करती है। प्रकाश भी सामान गति से पृथ्वी पर स्थापित सभी प्रेक्षकों पर फैलेगा किन्तु प्रकाश का प्रसरण तत्काल एक समान और क्षणिक नहीं होता हालाँकि उसका वेग बहुत विराट है तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड।
Related image              ऐसे विराट वेग की कल्पना करना कठिन है क्योंकि हमारे जीवन में हमारा वास्ता इससे कम वेगों से ही पड़ता है। इसके फैलाव का वृहत वेग भी अनोखा है आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इस वेग को कभी बदला नहीं जा सकता। जबकि पृथ्वी पर अन्य प्रेक्षकों की गतियों के वेग को घटाया या बढ़ाया जा सकता है चाहे वो चलती रेलगाड़ी हो या फिर बन्दूक से छोड़ी गयी गोली।
          उदाहरण के लिए यदि दागी गयी गोली के रास्ते में रेत की बोरी रखें बोरी को छेदकर गोली के वेग का अंश खो जायेगा तथा गोली पहले से धीरे चलेगी। प्रकाश की स्थिति बिल्कुल भिन्न है। प्रकाशीय किरणों के पथ में एक शीशे की प्लेट रखें। चूँकि शीशे में प्रकाश का वेग निर्वात की अपेक्षा कम होता है , इसलिए उसमें किरण पहले से धीरे चलेगी। यध्यपि शीशे से गुजरकर प्रकाश फिर तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेण्ड का वेग प्राप्त कर लेगा। निर्वात में प्रकाश का प्रसरण अन्य सभी वेगों से भिन्न होता है। उसको कम या तेज नहीं किया जा सकता और यह उसका एक महत्वपूर्ण गुण है। प्रकाश की किरणें चाहे किसी प्रकार के पदार्थ से गुजरें ,पर निर्वात में आते ही उसका प्रसरण पूर्व वेग से होने लगता है।
मस्तिष्क को निर्वात में जाने से रोकें 
           कुछ ऐसी घटनाएँ, व् विश्वस्त प्रयोग हमें सापेक्षिकता सिद्धांत को सत्य मानने के लिए विवश करते हैं, यह सिद्धांत हमारी परिवेशी दुनिया के उन आश्चर्यजनक गुणों को प्रकाश में लाता है ,जो सतही अध्यन से प्रकट नहीं होते।
क्या हमने कभी सितारों की यात्रा के वारे में ध्यान दिया ,आकाश में सितारे हमसे इतनी दूर हैं कि इनमें से कुछ तक प्रकाश किरण को पहुँचने में 40 वर्ष लग जाते हैं। चूँकि हमें पूर्व ज्ञान है कि प्रकाश वेग से तेज यात्रा करना असंभव है ,हम अच्छी तरह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सितारे तक 40 वर्ष से कम समय में पहुंचा नहीं जा सकता। यद्धपि यह निष्कर्ष गलत है क्योंकि हमने गति से सम्बंधित समय में परिवर्तन को ध्यान में नहीं रखा।
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यदि हम गति या वेग को बढ़ा दें तो उड़ान के समय को कम किया जा सकता है।
          सैद्धांतिक रूप से , काफी बड़े वेग से यात्रा करके हम एक मिनट में सितारे तक जाकर वापस पृथ्वी   पर आ सकते हैं पृथ्वी पर हालाँकि इसके दौरान कई वर्ष बीत जायेंगे। ऐसा लगता है कि इस प्रकार हमारे पास मानव को दीर्घायु करने का आधार हो गया , यद्पि केवल अन्य लोगों के दृष्टिकोण से ,चूँकि मानव उसके अपने समयानुसार वृद्ध होता जाता है। तथापि खेद है कि यदि सरसरी नज़र भी डालें तो यह सम्भावना अवास्तविक है। मानव शरीर दीर्घकालीन त्वरण की अवस्था के अनुकूल नहीं है ,जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के त्वरण से अधिक है। इसलिए प्रकाश के वेग के निकट गति को प्राप्त करने के लिए दीर्घकाल की आवश्यक्ता होती है।
       
              
                       

रविवार, 23 अप्रैल 2017

तमिलनाडु के किसान कहीं क्षेत्रीय असंतुलन की स्थिति तो नहीँ

                         तमिलनाडु के किसान 
             कहीं क्षेत्रीय असंतुलन की स्थिति तो नहीँ 

उत्तर प्रदेश के किसानों का कर्ज माफ कर दिया गया है। एक ओर राज्य के किसानों के मुरझाये चेहरे खिले हुए हैं। तो वहीँ तमिलनाडु के किसान विवश होकर पीएमओ ऑफिस के सामने नग्न प्रदर्शन कर रहे ।  किसानों की समस्याएं पूरे देश में कॉमन हैं । सूखा, बाढ़, कर्ज ,जल संसाधनों की कमी, पर्याप्त सिंचाई सुविधाओ का अभाव ,तकनीकी अक्षमता , फ़सल व बीज का रखरखाव, लागत खरीद व उत्पादन मूल्यों  में भारी असमानता, के साथ साथ जलवायु परिवर्तन व फ़सल चक्र की मौसमी प्रतिकूलताओं का असर ये तमाम ऐसी साझा समस्यायें हैं जिनका सामना आये दिन पूरे देश के किसान करते हैं । 

                स्थिति तब और विकट हो जाती है जब बड़ी मात्रा में किसानों की  आत्महत्याओं की खबरें सुनाई देने लग जाती हैं । उत्तर प्रदेश के एक कोने में बैठकर तमिलनाडु के किसानों की समस्याओं का आकलन करना मुश्किल है पर देश की भौगोलिक व सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखकर किसानों की पहचान व वर्गीकरण कर उनकी समस्याओं को निकट से समझने का आसान तरीका हो सकता है । भारत में क्रषि प्रबंधन के द्र्ष्टिकोण से पूरे देश को क्रषि प्रदेशों में वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया है।ये वर्गीकरण फसलों, मिट्टी और जलवायु के आधार पर किया गया है । 
        कई फसलों के मामले में तमिलनाडु मुख्य उत्पादक प्रान्त है यहाँ बागानी फसलें अधिक पैदा की जाती हैं। नारियल, काजू, कहवा, चाय, अनन्नास, सुपारी, गरम मसाले, और रबर बागानी फसलें हैं तो चावल यहाँ का प्रमुख खाद्यान है। तमिलनाडु में अधिकांशतः तालाबों से सिंचाई होती है इसलिये यहाँ सबसे ज्यादा तालाब हैं । राज्य जल संसाधनों के मामले में भले ही पिछडा हो पर जल सरन्क्षण के मामले में अग्रडी है ।चूँकि यहाँ का पानी खारा है और वो ना तो पीने योग्य है और ना ही सिंचाई के उपयुक्त इसलिये तमिलनाडु के लोगो की वर्षा के जल पर निर्भरता ज्यादा है। 
        तमिलनाडु में एक बार तमीलीयन किसान से नारियल पानी पीने के दौरान बात हुई तो उसने बताया नारियल तोड़ने वाले मजदूरों की संख्या घटती जा रही । अब बहुत मुश्किल से ऐसे मजदूर मिल पाते हैं जो नारियल के पेड़ पर चढ़ना जानते हैं इसलिये इनके दाम भी बहुत ऊँचे है और बाज़ार में लोग 5 या 10 रुपये में नारियल पानी पीना चाहते हैं । कभी कभी तो लागत से भी कम लाभ हो पाता है । आज भले ही तमिलनाडु के किसानों की स्थिति भयावह नज़र आ रही हो किंतु इसी राज्य की राजधानी चेन्नई में कोयम्बेड्डु होल्सेल फूड बाज़ार, क्रषि का एक ऐसा मॉडल दिखाई देता है जो पूरे एशिया में एक अलग पहचान रखता है । और ऐसा लगता है यहाँ के लोगों ने  क्रषि प्रबंधन व किसानों की स्थिति सुधारने के लिये एक बढ़िया प्रयास किया है जिसे नकारा नहीँ जा सकता । लगभग 100 एकड़ में फैला कोयम्बेड्डु होल्सेल मार्केट  व सुपर कॉंप्लेक्स सब्जियों , फलों व फूलों का बड़ा बाज़ार है । वर्ष 1996 में इसकी स्थापना हुई थी। इस शॉपिंग कॉंप्लेक्स में आज लगभग 4000 दुकानें हैं जिनमें सब्जियों फलों और फूलों के अलग ब्लॉक बने हैं । साथ ही टेक्सटाइल और फूड ग्रेन मार्केट भी हैं । जहाँ  होलसेल और रिटेल दोनों प्राइज़ में खरीददारी होती है ।साथ ही उपभोक्ता और किसानों के बीच सीधा सम्बन्ध होने से किसानों को लाभ की सम्भावना अधिक रहती है।


             तमिलनाडु क्रषि और किसानों की उभर रही समस्याओं के बीच कम से कम इतना तो अनुमान लगाया जा सकता है कि किसानों ने आत्महत्या जैसा घातक क़दम नहीँ उठाया पर केन्द्र सरकार के समक्ष अपनी माँगे मनवाने के जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं उससे जनआन्दोलनो की गम्भीरता पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं । इस तरह के आक्रामक प्रदर्शन को  साँस्क्रतिक विविधता के द्र्ष्टिकोण से देखने की वजाय केन्द्र और राज्य सरकार के बीच उभर रही विषमता के द्र्ष्टिकोण से भी देखा जा रहा है। राज्यों के विकास की जिम्मेदारी केन्द्र से अधिक राज्य की हैं । ऐसे में राज्य सरकार को अधिक गतिशील होने की ज़रूरत है । पर समस्या की गम्भीरता को देखते हुए केन्द्र सरकार को तमिलनाडु के किसानों के विकास में त्वरित मदद की भी आवश्यकता है । चूँकि भारतीय क्रषि से जुड़े हुए तमाम मसले राष्ट्रीय चिंतन का विषय हैं ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है , इन राज्यों से उभरने वाले आंदोलन से कहीं क्षेत्रीय असंतुलन की स्थिति तो  नहीँ ।
                                                Pratibha Katiyar 

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

प्रथ्वी

      


          प्रथ्वी

आकाश है विशाल,  
विराट , असीम ,अनन्त,
प्रथ्वी एक जीवन्त, जाग्रत ग्रह।    
रहते इस पर भाँति -भाँति के
जीव-जन्तु और मनुष्य ।
वॄक्ष, वनस्पतियाँ, सागर, नदियाँ
झरने, पहाड़, झीलें और मैदान,
सब एक से बढ़कर एक ।
ना जाने किसकी परिकल्पना,
ब्रह्माण्ड में समाहित,
सॄष्टि की अनोखी साकार रचना ।
                           Pratibha katiyar 


शुक्रवार, 3 मार्च 2017

नारियल की चटनी

नारियल की चटनी 

याद है अक्षरशः ,
कहानी नारियल की चटनी की ,
छोटा सा प्रयास कविता में गढ़ने की
इसका स्वाद और भीनी सी सुगंध,
दिलायेगी खाने के जायके का आनँद
मुझे बहुत भाती है चटनी,
सैर कराती दक्षिण भारत की
जब खाने में आ जाती चटनी
अहसास दिलाती जैसे मैंने कर ली यात्रा ,
पूरे भारत भर की ।
                      प्रतिभा कटियार 

सोमवार, 23 जनवरी 2017

The Dilemma of Handloom industry

असमंजस के दौर में भारतीय हथकरघा उद्योग 


जब नए विकल्प तलाशे जा रहे हों तो क्यों ना हम एक नए नजरिये से देखें बात सिर्फ रेवेन्यू बढ़ाने की नहीँ है। बात है खादी वस्त्र और अन्य भारतीय उत्पादों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में साख बनाने की और जब इसकी तैयारी जोरों से चल रही हो एक ऐसे  समय पर, जब  खादी अपने सौ वर्ष पूरे कर अपनी शतक यात्रा करने के बाद पुनः  एक नए पड़ाव पर हो तब हमारी सोच और चर्चा का विषय इस बात को लेकर तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता कि चरखे के पीछे किसकी तस्वीर चस्पा होनी चाहिए गंगूबाई की ,गाँधी जी की या फिर मोदी जी की या फिर इस बात को लेकर भी कि चरखे के बहाने एक बार फिर गाँधी दर्शन पर विमर्श किया जाये  जो कि आजादी के बाद की पीढ़ी के लिए एक बहुचर्चित डिबेट या ग्रुप डिस्कशन का मुद्दा बन चुका है। 
       
  क्यों ना बार&aबार भ्रमित करने और नई पीढ़ी के लिए असमंजस फ़ैलाने वाले मुद्दों से बाहर निकलकर हम तथ्यात्मक और न्यायसंगत दृष्टिकोण अपनाएं और चरखे से सम्बंधित कुछ बातों को हम एक निर्विवाद सत्य के रूप में स्वीकार कर लें और वो यह कि चरखे के साथ हमारा जुड़ाव बहुत पुराना और लम्बा है। इसका अपना इतिहास होने के साथ चरखा आजादी का प्रतीक भी है जिसके बल पर गाँधी जी ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर देश को आत्मनिर्भर बनाने की बुनियाद खड़ी की। चरखे ने क्रांति ला दी और देखते ही देखते अंग्रेजी शासन की नींव उखड़ने लगी पूरे भारत में चरखा और गाँधी जन &जन की जागृति का प्रतीक बन गए। और इस प्रतीक के माध्यम से गुलाम भारत और स्वतन्त्र भारत के ऐतिहासिक संघर्ष की दास्तान भी सुनी जाने लगी। पर क्या स्वयं गाँधी जी इसे मात्र आजादी दिलाने तक ही सीमित मानते थे उनके विजन में तो कृषि और कुटीर उद्दोग के जरिये देश की अर्थव्यवस्था और समग्र विकास का ढांचा तैयार करने का सपना था।   
     क्यों ना हम बहसबाजी की बजाय क़ुछ नए विकल्प तलाशें और एक नई यात्रा के पड़ाव के प्रारम्भ में ठहरने की बजाय गति में और तीव्रता लायें। कुछ मामलों में हमें दक्षिण भारत से प्रेरणा लेनी चाहिए। दक्षिण भारतीय खाद्दय उत्पाद मसलन डोसा ,इडली ,उत्तपम ,सांवर  जो कि अंतराष्ट्रीय बाजार में अपनी पैठ बना चुके हैं। यहाँ से लेकर विदेश तक जगह -जगह साउथ इंडियन फ़ूड बाजार या रेस्टोरेंट अपनी एक अलग छवि का निर्माण कर चुके हैं। हालाँकि डोसा के साथ चरखा की समानता या तुलना करना काफी हास्यास्पद होगा पर क्या कभी हमने गौर किया है अपनी परम्पराओं की रक्षा को लेकर सजग दक्षिण भारतीय जो अधिकांशतः चावल या भात खाते समय हाथ की चारों उँगलियों सहित हथेली का प्रयोग करते हों क्या वो उस समय भी कभी खाने के साथ कांटे और चम्मच का प्रयोग करते होंगे। जब हमारे देश में इनका प्रचलन भी नहीं था या फिर उस समय जब हमने अंग्रेजों की देखादेखी उनकी नक़ल करना शुरू कर दिया। शायद तब भी नहीँ बल्कि देखा जाये तो वहाँ के लोग आज भी खाने की अपनी पारंपरिक शैली का प्रयोग करते हैं। आज भी वहां केले के पत्ते में रेसिपी परोस कर खाने का रिवाज है।
         अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उतरते समय फर्क सिर्फ सोच का था और सर्व करने का नया तरीका जिसमें जरा सा बदलाव किया गया और डोसे को केले के पत्ते की वजाय प्लेट में कांटे और चम्मच के साथ परोसा जाने लगा और डोसा बाहर निकलकर ना सिर्फ उत्तर भारत बल्कि अमेरिका] ब्राज़ील तक छा गया।  पर इस छोटे से बदलाव का किसी दक्षिण भारतीय ने विरोध नहीँ किया बल्कि उन्होंने शांत भाव से खाने का अपना पुराना पारंपरिक स्वरुप जारी रखा और आज डोसे के साथ दक्षिण भारतीय व्यंजन होने की पहचान बच्चे बच्चे की जुबान पर है। 
   
  देखा जाये तो डोसा सिर्फ एक उत्पाद है व्यक्ति नहीँ। चरखा भी एक उत्पाद है पर चरखा डोसे की तरह स्वतंत्र नहीँ। चरखे की डोर किस हाथ में है यह व्यक्ति &aव्यक्ति पर निर्भर है। सार यह है कि हथकरघा उद्द्योग कृषि क्षेत्र के बाद सर्वाधिक रोजगार देने वाला एक कुटीर उद्द्योग है। जोकि अपनी परंपरागत कलात्मकता के द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृणीकरण में महत्वपूर्ण योगदान करता है। कपास की खेती और पैदावार में  भारत को इसकी जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक नाबार्ड से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार भारत में 38. 47 लाख हथकरघा बुनकर अपना जीविकोपार्जन हथकरघा बुनाई से कर रहे हैं। जिसमें 77 फीसदी महिलायें तथा 23 फीसदी पुरुष हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष भर में देश के अंदर तथा विदेशों में हथकरघा उत्पादों की प्रदर्शनी में काफी आय अर्जित हो जाती है। साथ ही विदेशी मुद्रा का सृजन भी होता है। चाहे बनारसी साड़ी हो या कांजीवरम सिल्क लखनवी चिकन हो या संबलपुरी सूट हैंडलूम के इन उत्पादों ने भारत की विविधता और समृद्धि में चार चाँद लगाए हैं। 
                                                                                                                               प्रतिभा कटियार 



रविवार, 15 जनवरी 2017

चर्चा-ए-चरखा

चर्चा-ए-चरखा
इस बार चर्चा ए खास है ।चर्चा का विषय है चरखा । चरखा के साथ दो विभिन्न काल व विभिन्न परिवेश किंतु एक ही प्रान्त में जन्मे दो नायकों के बीच तुलना का । पटकथा जिसने भी लिखी हो पर किरदार दमदार है। पिछले कुछ दशकों से गाँधी जी के वारे में बड़ी अजीबो गरीब बातें कहने सुनने लिखने वालों ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और पहली बार सचमुच ऐसा लगा है बापू को चरखे से प्रतिस्थापित करना किसी विस्थापन व त्रासदी के गहरे दर्द से गुजरने जैसा है।
      
           हालाँकि सरकार का मुख्य मकसद हथकरगा उध्योग को बढ़ावा देने का है । किंतु हथकरघा जनअभिव्यक्ति व जनमत का विषय बने उससे पूर्व देखा गया है इस तरह के प्रयोग देश में राजनीति का ही मंच तैयार कर रहे हैं । देश के सामाजिक आर्थिक विकास पर कोई बड़ा असर हो या ना हो पर इन घटनाओं को सतही ढंग से कवर करने में इलेक्ट्रानिक मीडिया के तमाम जनमाध्यम कोई कसर नहीँ छोडेंगे । 

        हाल ही में टीवी के एक वरिष्ठ व जाने माने पत्रकार ने हिन्दी अखबारों को लेकर एक टिप्पणी की जिसमें कहा गया क्या हिन्दी अखबार भी कचरा परोस रहे हैं । कुछ वर्ष पूर्व विकास पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत जाने माने वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने भी एक साक्षात्कार के दौरान प्रेस की हालिया पत्रकारिता को लेकर निराशा जनक स्थिति की तस्वीर पेश की थी। 

          चिंता वाजिब है और मन में सवाल भी उठ रहा है क्या अखबारों की भूमिका सिर्फ लोगों के बयानों को लेकर उनका विश्लेषण और मूल्यांकन करने तक सीमित रह गयी है। टेलीविजन पत्रकारिता हो या प्रेस पत्रकारिता भले ही दोनों के मंचों में गहरी असमानता हो और दोनों को बहुत ही अलग वातावरण में कार्य करना पड़ रहा हो । पर सच तो यह है पत्रकारिता को जहाँ लोग बेहद सरल नज़रिये से देखते थे आज वो पहले की तुलना में बहुत अधिक जटिल हुई है । इसके पीछे चाहे राजनीतिक बाहुबलियों का दवाब हो या बाज़ार का प्रभाव या तमाम अन्य कारण। 

narendra modi charkha के लिए चित्र परिणाम        किंतु आखिर पत्रकारिता का मुख्य मकसद सिर्फ जनान्दोलन खड़े करना ही नहीँ बल्कि लोगों के बीच स्थिरिता, साझेदारी, सदभाव व आम सहमति पैदा करना भी है ।बात जहाँ चरखे और गाँधी जी की है तो आमजनमानस के मन में चरखे के पीछे सदैव बापू का प्रतिबिम्ब ही दिखाई देगा । दोनों राष्ट्रीय प्रतीक होने के साथ राष्ट्रीय धरोहर भी है। चरखे के बिना गाँधी जी अधूरे हैं और गाँधी के बिना चरखा । खादी उध्योग फले फूले मोदी जी के इस नवीनतम प्रयोग ने इस सोच को एक नयी दिशा दी है । गाँधी जी और चरखा कल भी एक दूसरे के पर्याय थे और आज भी प्रासंगिक हैं । प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा, नवीनता का सॄजन हो पर प्राचीनता का सरन्क्षण भी।
                                                                                                                                                                                प्रतिभा कटियार