साक्षात्कार
गोमुख ग्लेशियर का एक अनुभव |
नदी का मुहाना एक ग्लेशियर
चुपके से आहट दी उसने फिर एक बार
शायद तीसरी चौथी दफा
यूँ लगाई पुकार
कोई और ना सुन सका
गरजती लहरें और भयंकर आबाज
सुनहले बर्फीले पहाड़
स्वेत मलमल सी बिछी बर्फ की कतार
कांच सी जमी फिसलती
कभी तैरती डूबती
तो कभी स्थिर होने का आभास देती
तभी अचानक टूटा चादर का एक टुकड़ा
संभाल ना सका बोझा उस पर था जो आ पड़ा
बर्फ की ठंडी सिहरन
हाड़ मांस का बना एक इंसानी कफ़न
सिर से लेकर पैर तक वो हड्डी की गलन
याद है मुझे उस जगह
समाधिस्थ हो जाने की दशा-दिशा
उस पर भी भीग जाने की
कठोर निर्मम सर्दी की वो गलन
आया बस यही ख्याल
इतनी निष्ठुर तो नहीं नियति
अभी तो शुरू ही कहाँ हुई डगर
जो चल पड़े कदम अंत को अगर
नहीं यह तो उद्गम से मिलने की थी
वर्षों पुरानी संधि की एक पल की अगन
बस यूँ ही मिलवाना था दो पल
कराना था मृत्यु का आलिंगन
विधाता ने दिखाई झलक
एक और दिया है नवजीवन
pratibha katiyar
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