शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

प्रतिस्पर्धा

प्रतिस्पर्धा 
अपने ही द्वंदों में उलझी,
मैं खुद की प्रतिद्वंदी हूँ।
चाह नहीं औरों से उलझूँ ,
बस मार्ग में कांटें ना बोयें।
गर नहीं कर सकते सहयोग ,
तो न वो करें धुर विरोध।
ये तो कोई बात नहीं,
सिर्फ मेरे संग भेदभाव,
राजनीति का कोई हिसाब नहीं।
क्यों होती है राजनीति ,
कुटिल बुद्धि की कैसी रणनीति,
हर पल रहते  हैं  यहाँ कुछ लोग,
दादागिरी के लिबास में,
नहीं भाता उन्हें देख पाना,
जो लगे रहते हैं हरदम,
उठाने गिराने के  हिसाब में।
यह कौन सा खेल है,
 अपने को सफल कहलाने का,
राह चलते बेतुके शब्द छोड़कर,
हवा में तीर मार जाने का,
जब नहीं कर सकते आत्मनुशासन,
तो मत करो प्रयास औरों को दबाने का,
क्या चाहते हो विना पुरुषार्थ के प्रशासन।
                                                            प्रतिभा कटियार   

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