कला और संस्कृति का प्रदेश उड़ीसा जिसके समुद्री तट पर बसा है पौराणिक ऐतिहासिक और धार्मिक शहर पुरी यह हिन्दुओं का अत्यन्त पवित्र धर्म स्थल है क्योंकि यह भारत के चार धामों में से एक जाना जाता है. उड़ीसा भारत के पूर्वी भाग में है जो पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और आंध्रप्रदेश से घिरा हुआ है इसके दक्षिण में है बंगाल की खाड़ी जहाँ समुद्र की विशाल लहरों से लगा हुआ है पवित्र धाम जगन्नाथ.
भगवान जगन्नाथ की भूमि पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से ६० किलोमीटर दूर है. भुवनेश्वर से पुरी दो मार्गों से जाया जा सकता है. एक विश्व प्रसिद्द कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर से होते हुए दूसरा सीधा भुवनेश्वर से पुरी. कोणार्क से पुरी का रास्ता समुद्र तट से होता हुआ जाता है जहाँ मार्ग में अनेकों नदियाँ हरे भरे मैन्ग्रोव वन व दूसरी ओर काजू व नारियल के घने वृक्ष यात्रा का आनंद कई गुना बढ़ा देते हैं. इस मार्ग से गुजरते हुए कोणार्क का मंदिर, संग्रहालय व चन्द्रभागा समुद्र तट देखते हुए पुरी जाया जा सकता है. दूसरा रास्ता सीधा भुवनेश्वर से पुरी का है जहाँ बस व रेल द्वारा जाया जा सकता है यह मार्ग भी अत्यंत मनोरम है.
पुरी पहुँचने पर वहाँ ठहरने के लिए अनेकों होटल व धर्मशालाएं हैं. सबसे पहले हमने बस स्टैंड से उतर कर गुंडिचा मंदिर के दर्शन किये यह भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है. यह मान्यता है कि वर्ष में भगवान एक बार अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ अपनी मौसी के घर जाते हैं यह यात्रा विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथ यात्रा के नाम से जानी जाती है जो आषाण माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को निकलती है.
यहाँ से करीब पौने दो किलोमीटर दूर है पावन धाम जगन्नाथ हमने वहाँ पहुँचने के लिए टैक्सी पकड़ी और चल दिए हमने देखा कि सड़क पर ही लोग दुकान लगाये हुए थे. ध्यान से देखा तो पाया कि यहाँ की सड़क बहुत चौड़ी है करीब सामान्य सड़क की चार गुनी दुकानें लगभग सभी धार्मिक वस्तुओं से अटी पड़ी हैं. रथ यात्रा के कारण यहाँ की सड़क प्रशासन ने इतनी चौड़ी बनायी है, यात्रा के समय यह दुकानें यहाँ से हटवा दी जाती हैं. निकट पहुँचने पर मंदिर का ऊपरी सिरा व ध्वज दिखने लगता है. मन्दिर पहुँचने पर हमें एक अलग ही दृश्य दिखाई देता है जो प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्था का बोध दिलाता है.
मंदिर दक्षिण भारत की शैली का बना है जिसमें पहला भाग नाट्य मंडप, दूसरा नृत्य मंडप व तीसरा और आखिरी गर्भ गृह है जो भगवान का निवास स्थान है. मंदिर की ऊँचाई २१४.८ फुट है. मंदिर के चार प्रवेश द्वार हैं सिंह द्वार, अश्व द्वार, बाघ द्वार व हाथी द्वार जो चारों दिशाओं में निर्मित हैं. सिंह द्वार के ठीक सामने एक स्तम्भ है जिसकी ऊंचाई गर्भ गृह में स्थित भगवान की ऊंचाई के बराबर है इस स्तम्भ को भगवान का प्रतीक माना जाता है. मन्दिर लगभग तेरहवीं शताब्दी का बना है जिसे उस समय के राजा नृसिंघदेव ने बनबाया था मंदिर की सुंदरता व नक्काशी देखते ही बनती है. मंदिर की कलाकृति देखकर आप भारतीय विरासत पर गौरव किये विना नहीं रह सकते. मंदिर में कैमरा मोबाइल आदि सामान ले जाना वर्जित है इसलिए हमने अपना सारा सामान बाहर स्टैंड में जमा कर दिया और मंदिर के प्रवेश द्वार पहुँचे वहाँ पर भारी मात्रा में पुलिस बल खड़ा था जो हमारे सामान की चेकिंग कर रहा था. इस मंदिर के वारे में हमें एक जानकारी मिली कि यहाँ हिन्दुओं के अलावा किसी और धर्मावलंवी को प्रवेश नहीं दिया जाता है यह स्थिति पूरे ओड़िसा के ज्यादातर बड़े मंदिरों में है.
मन्दिर के आस पास का पूरा क्षेत्रफल कई वर्ग फुट तक फैला हुआ है जिसके प्रांगण में अनेकों छोटे बड़े मंदिर हैं. सभी मंदिर अत्यंत ही भव्य व भारतीय विरासत को समेटे हुए हैं इस मंदिर की एक विशेषता है यहाँ चढ़ने वाला महाप्रसाद कहा जाता है कि भगवान इन चार धामों में से बद्रीनाथ में शयन करते हैं द्वारका में भ्रमण रामेश्वरम में स्नान व पुरी में भोजन करते हैं. यह प्रत्यक्ष देखने को मिलता है वहाँ चढ़ने वाले महाप्रसाद से कहा जाता है कि भगवान इन चार धामों में से बद्रीनाथ में शयन करते हैं द्वारका में भ्रमण रामेश्वरम में स्नान व पुरी में भोजन करते हैं. यह प्रत्यक्ष देखने को मिलता है वहाँ चढ़ने वाले महाप्रसाद से यह एक तथ्य है कि वहाँ प्रत्येक दिन अलग प्रजाति के चावल से निर्मित भोजन का भोग लगाया जाता है इस प्रकार वहाँ के आस पास के खेतों में ३६५ प्रजाति के चावल के खेती होती है. इस महाप्रसाद को वहाँ से खरीदकर भक्त लोग बड़े चाव के साथ खाते हैं खाने का ढंग एकदम पारम्परिक है केले के पत्ते और मिट्टी की हांडी में भोजन किया जाता है.
वहाँ हमने भोजन बनने वाली जगह वहाँ की रसोई घर भी देखी जो बहुत ही विशाल थी वहाँ बड़ी-बड़ी भट्टियाँ पंक्तिबद्ध बनी थीं जिनमें एक के ऊपर एक हांडी रखी थी अब हम भगवान के दर्शन के लिए मुख्या मंदिर गए वहाँ हजारों की संख्या में भीड़ थी इससे पहले हमें मन्दिर पहुँचने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि प्रवेश द्वार के साथ ही वहाँ के पंडों ने हमें घेर लिया था जो हमारे पीछे पीछे चले आ रहे थे श्रद्धा के नाम पर ये पण्डे आपकी जेब ढीली करवाने में एकदम पारंगत हैं एक और चीज जो हमने देखी वो वहाँ का पंडा बाजार ही था कहते हैं कि ओड़िसा के साठ फीसदी लोगों के रोजगार का माध्यम पाण्डवाद या धार्मिक क्रियाकलाप ही हैं.
इस यात्रा के दौरान हमने कई बातों की जानकारी प्राप्त की जैसे वहाँ की जल सरंक्षण की प्राचीन व पारम्परिक प्रणाली, पूरे उड़ीसा के मंदिरों में हमें जल व्यवस्था बहुत अच्छी लगी. वहाँ सभी मंदिरों के प्रांगण में ही एक तालाब और कुँआ होता है. तालाब में अभी भी लोग स्नान करते हैं और भोजन कुंए के पानी से ही बनता है.
भगवान के दर्शन और महाप्रसाद लेने के बाद हमारा गंतव्य था पुरी का समुद्री तट जिसका हमें बेसब्री से इंतजार था . समुद्र की विशाल लहरों का सानिध्य हमारी जिज्ञासा का अंतिम पड़ाव था. इस तरह हमारी भुवनेश्वर से पुरी की यात्रा का समापन कभी ना भूलने वाली यात्रा के रूप में हुआ जो आज भी स्मृति में बसी होने के कारण आनन्द प्रदान करती है .
पुरी पहुँचने पर वहाँ ठहरने के लिए अनेकों होटल व धर्मशालाएं हैं. सबसे पहले हमने बस स्टैंड से उतर कर गुंडिचा मंदिर के दर्शन किये यह भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है. यह मान्यता है कि वर्ष में भगवान एक बार अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ अपनी मौसी के घर जाते हैं यह यात्रा विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ रथ यात्रा के नाम से जानी जाती है जो आषाण माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को निकलती है.
यहाँ से करीब पौने दो किलोमीटर दूर है पावन धाम जगन्नाथ हमने वहाँ पहुँचने के लिए टैक्सी पकड़ी और चल दिए हमने देखा कि सड़क पर ही लोग दुकान लगाये हुए थे. ध्यान से देखा तो पाया कि यहाँ की सड़क बहुत चौड़ी है करीब सामान्य सड़क की चार गुनी दुकानें लगभग सभी धार्मिक वस्तुओं से अटी पड़ी हैं. रथ यात्रा के कारण यहाँ की सड़क प्रशासन ने इतनी चौड़ी बनायी है, यात्रा के समय यह दुकानें यहाँ से हटवा दी जाती हैं. निकट पहुँचने पर मंदिर का ऊपरी सिरा व ध्वज दिखने लगता है. मन्दिर पहुँचने पर हमें एक अलग ही दृश्य दिखाई देता है जो प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्था का बोध दिलाता है.
मंदिर दक्षिण भारत की शैली का बना है जिसमें पहला भाग नाट्य मंडप, दूसरा नृत्य मंडप व तीसरा और आखिरी गर्भ गृह है जो भगवान का निवास स्थान है. मंदिर की ऊँचाई २१४.८ फुट है. मंदिर के चार प्रवेश द्वार हैं सिंह द्वार, अश्व द्वार, बाघ द्वार व हाथी द्वार जो चारों दिशाओं में निर्मित हैं. सिंह द्वार के ठीक सामने एक स्तम्भ है जिसकी ऊंचाई गर्भ गृह में स्थित भगवान की ऊंचाई के बराबर है इस स्तम्भ को भगवान का प्रतीक माना जाता है. मन्दिर लगभग तेरहवीं शताब्दी का बना है जिसे उस समय के राजा नृसिंघदेव ने बनबाया था मंदिर की सुंदरता व नक्काशी देखते ही बनती है. मंदिर की कलाकृति देखकर आप भारतीय विरासत पर गौरव किये विना नहीं रह सकते. मंदिर में कैमरा मोबाइल आदि सामान ले जाना वर्जित है इसलिए हमने अपना सारा सामान बाहर स्टैंड में जमा कर दिया और मंदिर के प्रवेश द्वार पहुँचे वहाँ पर भारी मात्रा में पुलिस बल खड़ा था जो हमारे सामान की चेकिंग कर रहा था. इस मंदिर के वारे में हमें एक जानकारी मिली कि यहाँ हिन्दुओं के अलावा किसी और धर्मावलंवी को प्रवेश नहीं दिया जाता है यह स्थिति पूरे ओड़िसा के ज्यादातर बड़े मंदिरों में है.
मन्दिर के आस पास का पूरा क्षेत्रफल कई वर्ग फुट तक फैला हुआ है जिसके प्रांगण में अनेकों छोटे बड़े मंदिर हैं. सभी मंदिर अत्यंत ही भव्य व भारतीय विरासत को समेटे हुए हैं इस मंदिर की एक विशेषता है यहाँ चढ़ने वाला महाप्रसाद कहा जाता है कि भगवान इन चार धामों में से बद्रीनाथ में शयन करते हैं द्वारका में भ्रमण रामेश्वरम में स्नान व पुरी में भोजन करते हैं. यह प्रत्यक्ष देखने को मिलता है वहाँ चढ़ने वाले महाप्रसाद से कहा जाता है कि भगवान इन चार धामों में से बद्रीनाथ में शयन करते हैं द्वारका में भ्रमण रामेश्वरम में स्नान व पुरी में भोजन करते हैं. यह प्रत्यक्ष देखने को मिलता है वहाँ चढ़ने वाले महाप्रसाद से यह एक तथ्य है कि वहाँ प्रत्येक दिन अलग प्रजाति के चावल से निर्मित भोजन का भोग लगाया जाता है इस प्रकार वहाँ के आस पास के खेतों में ३६५ प्रजाति के चावल के खेती होती है. इस महाप्रसाद को वहाँ से खरीदकर भक्त लोग बड़े चाव के साथ खाते हैं खाने का ढंग एकदम पारम्परिक है केले के पत्ते और मिट्टी की हांडी में भोजन किया जाता है.
वहाँ हमने भोजन बनने वाली जगह वहाँ की रसोई घर भी देखी जो बहुत ही विशाल थी वहाँ बड़ी-बड़ी भट्टियाँ पंक्तिबद्ध बनी थीं जिनमें एक के ऊपर एक हांडी रखी थी अब हम भगवान के दर्शन के लिए मुख्या मंदिर गए वहाँ हजारों की संख्या में भीड़ थी इससे पहले हमें मन्दिर पहुँचने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि प्रवेश द्वार के साथ ही वहाँ के पंडों ने हमें घेर लिया था जो हमारे पीछे पीछे चले आ रहे थे श्रद्धा के नाम पर ये पण्डे आपकी जेब ढीली करवाने में एकदम पारंगत हैं एक और चीज जो हमने देखी वो वहाँ का पंडा बाजार ही था कहते हैं कि ओड़िसा के साठ फीसदी लोगों के रोजगार का माध्यम पाण्डवाद या धार्मिक क्रियाकलाप ही हैं.
इस यात्रा के दौरान हमने कई बातों की जानकारी प्राप्त की जैसे वहाँ की जल सरंक्षण की प्राचीन व पारम्परिक प्रणाली, पूरे उड़ीसा के मंदिरों में हमें जल व्यवस्था बहुत अच्छी लगी. वहाँ सभी मंदिरों के प्रांगण में ही एक तालाब और कुँआ होता है. तालाब में अभी भी लोग स्नान करते हैं और भोजन कुंए के पानी से ही बनता है.
भगवान के दर्शन और महाप्रसाद लेने के बाद हमारा गंतव्य था पुरी का समुद्री तट जिसका हमें बेसब्री से इंतजार था . समुद्र की विशाल लहरों का सानिध्य हमारी जिज्ञासा का अंतिम पड़ाव था. इस तरह हमारी भुवनेश्वर से पुरी की यात्रा का समापन कभी ना भूलने वाली यात्रा के रूप में हुआ जो आज भी स्मृति में बसी होने के कारण आनन्द प्रदान करती है .
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