शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

सूचना बॉम्बार्डमेंट नहीं है जरुरी है सूचना स्रोतों का सही चयन और परस्पर तालमेल

सूचना बॉम्बार्डमेंट नहीं है जरुरी है सूचना स्रोतों का सही चयन और परस्पर तालमेल 


Let us finish the culture of paid news; otherwise it will finish us in coming days. 
                                                                                 p . Sainath                                   
सूचना के तमाम स्रोतों के बीच सन्देश कहीं छुप गया है और वो अपनी पहचान अहमियत व प्रासंगिता खो चुका है। कुछ लोगों का  मानना है सूचना बॉम्बार्डमेंट की तरह है। पर यह पूरी तरह सच नहीं आम तौर पर यह सोच उन लोगों की है जो सूचना के तमाम स्रोतों की विश्वसनीयता और गंभीरता को लेकर पशोपेश में हैं और अवांक्षित दवाव महसूस कर रहे हैं। सूचना के इन तमाम जनमाध्यमों खासकर सोशल मीडिया को सार्थक सन्देश देने की वजाय गप्पबाजी व अविश्वसनीय सूचनाओं का अम्बार मानते हैं। हालाँकि मीडिया कन्वर्जेन्स के दौर में ना सिर्फ यह पहचान कर पाना मुश्किल हो गया है कौन सा जनमाध्यम अधिक उपयुक्त है और किस पर अधिक निर्भर रहा जाये, साथ ही यह निश्चित कर पाना भी मुश्किल है कौन से सन्देश विशुद्ध रूप से किस मीडिया के कंटेंट ग्रुप से हैं। 

           यदि हम प्राचीन काल के पारंपरिक स्रोतों पर नजर डालें तो राजाओं के विशेष दूत द्वारा भेजे गए शाही फरमान से लेकर भित्तिचित्र व अशोक के शिलालेखों तक का अनोखा प्रयोग हर दौर में होता दिखाई देता है।और इनकी लोकप्रियता और संप्रेषणशीलता के प्रभाव को लोगों ने समय समय पर स्वीकार भी किया  है। पर पिछले कुछ वर्षों के आजादी के दौर से लेकर अब तक भारत में प्रिंट मीडिया के विकास, योगदान और भागीदारी  को नकारा नहीं जा सकता। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम दृश्य -श्रव्य उपकरणों और इधर नव मीडिया के आने के बाद भी इसकी प्रसार संख्या ,लोकप्रियता, उपयोगिता और विश्वसनीयता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है।

             हाल ही में जारी भारतीय प्रेस पंजीकरण की रिपोर्ट में प्रिंट प्रकाशन की पंजीकृत संख्या और सर्कुलेशन की बढ़ती रफ़्तार ने इस आशंका को  गलत साबित कर दिया कि दृश्य -श्रव्य व् डिजिटल माध्यमों के प्रसारण ने प्रिंट मीडिया को प्रभावित किया है। बल्कि प्रिंट मीडिया ने अपने आप को आधुनिक दृष्टिकोण के साथ  नए परिवर्तन और चुनौतियों का सामना करने में अधिक सक्षम बनाया है। अपनी कार्यप्रणाली में इसने सूचना प्रौद्दोगिकी को भी सम्मिलित किया है जिसके परिणामस्वरूप इसमें तेज गति और सस्ती कीमत के साथ बेहतर कवरेज प्रणाली भी विकसित हुई है। शिक्षा के प्रसार ने प्रिंट मीडिया के पाठकों की संख्या भी बड़ाई है। 


         अपनी तमाम विशेषताओं के चलते प्रिंट प्रकाशनों की एक अलग मौलिक पहचान है। यदि हम नियमित रूप से अख़बार पढ़ते हैं तो सूचना ना सिर्फ हमारे लिए आनंद की वस्तु है बल्कि  एक विशेष समय पर नियमित अध्ययन हमारी दिनचर्या और जीवन शैली को भी नियंत्रित करता है। जीवन प्रबंधन में अख़बार की भूमिका का अपना अलग योगदान है। ज्यादातर अच्छे और पाठकों के बीच गंभीर पहचान रखने वाले अख़बारों में कंटेंट से लेकर डिजाइन व लेआउट का निर्माण इस तरह किया जाता है कि पाठकों को संचार के सभी अवयवों की आवश्यक खुराक मिल जाती है। सूचना, शिक्षा, मनोरंजन के परस्पर तालमेल से ना सिर्फ पाठकों की जिज्ञासाओं का समुचित समाधान होता है बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, वित्त, पर्यावरण, खेलकूद, तकनीक व अनेक रोचक विषयों की जानकारी पाठकों का ज्ञानवर्धन भी करती है। 


       वास्तव में अख़बार और ज्यादा पढ़ने व जानने को प्रेरित करते हैं। प्रकाशित सामिग्री के प्रति विश्वसनीयता के चलते संदेशों की ग्रहण-शीलता भी अधिक है। हालाँकि व्यावसायिकता के चलते तमाम अख़बारों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ा है और इसने अपने स्वरुप में व्यापक फेरबदल किया है। इस पर औध्योगिक लामबंदी या किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति विशेष झुकाव तथा पूरी तरह व्यावसायिक होने का आरोप भी लगता है।पेड न्यूज़ कल्चर ने पत्रकारिता की मूळ आत्मा को ही भारी क्षति पहुंचाई है जिसने एक अलग नकारात्मक वातावरण को जन्म दिया है।  फिर इसमें काम करने वाले पेशेवर, गैर पेशेवर और वो  तमाम लोग भी हैं जो अपने प्रोफेशन से संतुष्ट नहीं हैं और इसमें सुधार या बदलाव चाहते हैं।सकारात्मक और नकारात्मक जैसे आधुनिक  भारतीय दर्शन ने समाचारों और घटना की रिपोर्टिंग की तटस्थता को भी प्रभावित किया है। और अक्सर इन दोनों के संतुलन के बीच नकारात्मकता का पलड़ा भारी पड़ जाता है। 


          नकारात्मकता का दवाव हमें गहरे अवसाद में धकेल रहा है इसलिए एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जो लोग वैचारिक प्रदूषण मुक्त भारत का सपना देखते हैं उन्हें पहले स्वयं स्वकेंद्रित सोच से बाहर आकर सबके बीच बातचीत और परस्पर वार्तालाप व सीधा संवाद का निर्माण करना होगा। सारी नकारात्मकता का ठीकरा किसी एक पर उड़ेल कर सामाजिक उत्तरदायित्व बोध से किनारा नहीं किया जा सकता। अगर हम वास्तव में लोकतंत्र के सजग प्रहरी का निर्माण करना चाहते हैं तो सबसे पहले उन परिस्थितियों पर जरूर विचार करना चाहिए जिसमें कमजोर से लेकर दबंगों, गुप्तचरों, अवसरवादिता से घिरे लोगों और तमाम तरह की बाहरी व आन्तरिक नकारात्मक बातों को पनपने का अवसर मिलता है। 

       संचार के क्षेत्र में कार्य कर रहे लोगों को संवादहीनता या किसी वैचारिक निर्वात के दौर से गुजरने की पीड़ा को वो लोग नहीं समझ सकते जो इन तमाम विसंगतियों को भी व्यावसायिक दृष्टिकोण से नाप तौल कर अपना फायदा उठाने की फ़िराक में रहते हैं। पेशेवर लोगों को एक मजबूत इकाई बनकर एक दूसरे का मोरल सपोर्ट और नैराश्य भाव त्याग कर आशा का संचार करने पर भी ध्यान देना होगा। यदि आप संचार के क्षेत्र में कार्यरत हैं तो संवाद कायम करना होगा ना कि सम्राट किल्विष और शक्तिमान की भांति  अँधेरा करने और दीपक जलाने बुझाने की वकालत। 


                                                                      *****    प्रतिभा कटियार 

             

शनिवार, 17 सितंबर 2016

सतत विकास के साथ जरुरी है सतत खोज

सतत विकास के साथ जरुरी है सतत खोज 

 प्रसिद्ध तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती की रचना की कुछ पंक्तियां हैं जिसका आशय है यदि एक भी आदमी के पास खाने को नहीं होगा तो हम इस दुनिया को नष्ट कर देंगे।
      हर भारतीय को देश की तरक़्क़ी का लाभ मिले इस प्रयास की खोज ने एक महत्वपूर्ण विकासात्मक सोच को 20 वीं सदी के उत्तरार्ध में जन्म दिया। और उसके बाद विकास के नाम पर अधिकांश अविकसित देशों ने विकसित देशों की नकल करना शुरु कर दिया।
     आधुनिक प्रौद्योगिकी ने विस्फोटक की तरह विकास काे और तीव्र कर दिया। इस बीच विकास के कई स्वरुप; अवधारणायें एवं मॉडल उभर कर आए और इससे यह सोच बनने लगी कि पूरी दुनिया के विकास की सोच में समरूपता हो समग्रता और एकता हो।
      पर अनगिनत विचारकों से बात करने और ज्ञान प्राप्त करने के बाद अचानक दाना मांझी जैसी घटना के बाद विकास की हर अवधारणा पर सबालिया निशान लग रहे हैं। और इस घटना ने एक बार फिर विकास के नये- नये मार्गों की खोज पर विवश कर दिया है। क्यों ना फिर से भूले बिसरे लोगों आदिवासी समाज और लुप्त जनजातियों के दरवाजों पर दस्तक देना आरंभ किया जाये।
दाना मांझी
दाना माझी पत्नी का शव लिए हुए अपनी  बेटी के साथ 
           सतत विकास के साथ सतत खोज की भी आवश्यकता है। हालांकि संचार माध्यमों के द्वारा दाना मांझी घटना के प्रसारण के बाद उनको ना सिर्फ सरकारी व निजी स्तर पर बल्कि बहरीन से आर्थिक मदद भी मिली है। चूंकि गरीबी के अंतर्राष्ट्रीय सरोकार भी हैं इसलिए अंतरराष्ट्रीय संवेदना दी है और इसकी सराहना भी होनी चाहिए। पर इस संबंध में सबसे अधिक निर्णायक कार्यवाही भारत को ही करनी चाहिए।
            हमें अपनी खोज और प्रयास देश की विलुप्त हो रही पारंपरिक ज्ञान संपदा प्रौद्योगिकी और उस सामाजिक परिवेश के संरक्षण की भी करनी होगी; जिस समाज में सदियों से लोग अपना भरण-पोषण करते आ रहे थे अचानक धीरे धीरे वहॉ की संपदा कैसे नष्ट होने लगी और इस तरह की घटनायें सामने आने लगी हैं।

दाना मांझी के लिए चित्र परिणाम
बहरीन के प्रधानमंत्री प्रिंस खलीफा बिन सलमान अल खलीफा 
     आधुनिक प्रोद्योगिकी और विकास की पश्चिमी सोच ने हमारे देश की पारंपरिक ज्ञान संपदा को भारी क्षति पहुंचाई है। और अब इसकी भरपाई के अलावा ना सिर्फ इसे संरक्षण देने बल्कि आर्थिक समाधान देने की भी आवश्यक्ता है। पर इसके लिए हम सबको राष्ट्रीय चेतना की संकुचित विचारधारा और अलगाववादी सोच से ऊपर उठकर एक राष्ट्र के रुप में संकल्प लेना होगा। और आपस में मिलकर समाधान की दिशा में कार्य करना होगा। जिन्हें देश के इतिहास भूगोल की थोड़ी बहुत भी बुनियादी जानकारी होगी ऐसे लोगों के माध्यम से स्कूल कॉलेज के छात्रों द्वारा आसपास के स्थानीय लोगों जनजातियों का पूरा विवरण एकत्र करवाया जा सकता है। सर्वेक्षणों के द्वारा बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सकती है और इन सब का एक दस्तावेज तैयार किया जा सकता है जिसके माध्यम से हमें वह सारी जानकारियां मिल सकती हैं जिसमें स्थानीय कलाओं; हुनरों कुशलताओं शिल्प कारीगरी आदि के बारे में आर्थिक संभावनाएं छिपी हैं। वास्तव में देश की समृद्धि का रास्ता बाहर से नहीं बल्कि अंदर ही मौजूद है बस उन सब स्रोतों को ढूंढ निकालने के लिए एक अभियान चलाने की व दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यक्ता है।
                                                                                                                                                                 *******   प्रतिभा कटियार।

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

आत्मविश्वास

rising sun के लिए चित्र परिणामहे सूर्य देव
तुम्हारे होते हुए मैं क्यूँ जलूँ
माना कि रात्रि अंधेरी
पर दिन निकलेगा
सूर्य उगेगा छितिज से आसमान का
आरोहण होगा
एक नया स्वप्न जगेगा
इतनी वैज्ञानिक जागरुकता के बावजूद
मैं क्यों जलूॅ
नहीं इतनी प्रबल महत्वाकांक्षा
बनूं इस ब्रह्माण्ड का एक सितारा
जो रहता सुदूर हमसे लाखों प्रकाश-वर्ष 
महज टिमटिमाता गहन रात्रि
देखो मेरी पृथ्वी पर
रहते हजारों प्रजाति के
नाना जीव-जन्तु और मनुष्य
इनके संग क्यों ना
संवाद स्थापित करूं
क्यों अंधकार को कोसूॅ
प्रलय की आॅधियों से लडूॅ
सफलता के मापदंड और पैमाने
की रूपरेखा गढूं
दूसराें के बताये हुए रास्ते पर
कदम दर कदम चलूं
जो हैं महज लकीर के फकीर
अपनी ही कुत्सित योजनाओं
मान्यताओं के आराजक
लोभी उपासक
इससे अच्छा है
स्वम् को गढ़ॅू
उस पथ पर चलूॅ
जहाॅ जाते हों अनेकों सत्पुरुष
दिखाते राह
बनाते सुगम सरल जीवन का पथ
जटिलताओं में नहीं उलझाते
और ना रचते चक्रव्यूह
करते आशाओं का दीपदान
देते ज्ञान और विश्वास की संपदा
जो बनाते मजबूत प्रकाश स्तंभ।
                          *********  प्रतिभा कटियार।

रविवार, 31 जुलाई 2016

क्या हम सचमुच सतत विकास में पिछड़े हैं।







क्या हम सचमुच सतत विकास में पिछड़े हैं।

आंकड़े चौंकाने वाले भले ही ना हो पर हमें सोचने पर विवश करते हैं सतत विकास सूचकांक में भारत 149 देशों में 110वें स्थान पर है। जीडीपी के मामले में हम दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था हैं पर मानव संसाधन विकास में हम अपने कुछ पड़ोसी देशों से भी पिछड़े हैं सीधा सा कारण है हमारा देश दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी का भरण पोषण करता है विकास के आज के वक्त के सबसे प्रचलित लोकप्रिय मॉडल सतत विकास को लेकर की जा रही अवधारणा कोई नई नही है। प्राचीन काल से ही हमारा देश भोगवादी प्रवृत्ति से परे सम्यक अवधारणा व उपभोग के बजाय समुचित उपयोग पर बल देता रहा। सतत विकास को लेकर किये जा रहे आकलन के पीछे मूलभूत अंतर जो दिखाई देता है वह यह है कि हमारा सारा नियोजन ज्ञान को हासिल करने में लगा रहा और अन्य देशों ने नये नये बाजार निर्मित करने में अपना जोर लगाया। बाजार का निर्माण करने में हम भले ही पीछे रहे हों पर आज हमारा देश एक बड़े बाजार के रूप में सबको खूब लुभा रहा है। आज भी विरासत से मिले ज्ञान की कुछ पारंपरिक बातें हमारे समाज की प्रचलित अवधारणाओं में हैं। यह इतनी सुदृढ़ और व्यवस्थित हैं कि इन पर कोई अतिरिक्त संगठन खड़ा करने की जरूरत नहीं है। पर क्या कारण है कि ना सिर्फ नये मॉडल गढ़ने की हवा को बल मिल रहा है बल्कि नये ढ़ॉचे निर्मित भी हो रहे हैं। नये संगठन खड़े हो रहे हैं कहीं ना कहीं हमने इस बात को भुला दिया है विरासत में मिले पारंपरिक ज्ञान को हमने रूढ़िवादी मानसिकता से देखना शुरू कर दिया है।  और अब हमारी हर कोशिश उस ज्ञान को ठोकपीट कर बाजार के काबिल बनाने की है। भले ही यह नये विकसित मॉडल हमारी समृद्दि में विशेष योगदान ना दें पर भविष्य में इन मॉडलों के ध्वस्त अवशेष एेतिहासिक समृद्दि की गवाही तो देंगे ही।
                                                                                                                                                                  **********      प्रतिभा कटियार

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

साम्राज्य

साम्राज्य
यह कविता उन तमाम देशी विदेशी आक्रांताओं को ध्यान में रखते हुए लिखी गई है जो भारत की पुण्य भूमि को लूटने के उद्देश्य से यहां आये या फिर एक राज्य से दूसरे राज्य गए .और ज्ञान व प्रकाश की खोज में रत भारत को विदेशी साम्राज्यवादी नीति का अंग बनते देखकर कुछ साधकों व दृष्टाओं के मन में यह विचार जन्मे.

ढे होंगे किले,
बसाए होंगे महल!
तुम्हारे पास, 
तोप और तलवार का बल!
साथ यात्रियों का,
एक सहस्त्र दल!
सैनिकों की टुकड़ी,
मोर्चेबंदी और सेंधमारी में कुशल!
मेरे पास कुछ नहीं,
मात्र भ्रम के कुहासे में ढकी,
भोर की एक नन्हीं उजली किरण!
मेरे जीवन की आशा,
संजो कर कुछ जुटा पाने का संतोष,
मिल बांट कर खाने का सुख!
कुछ स्वाध्याय का तप,
प्रकृति अलमस्त फकीर!
असीम संवेदनाओ से उपजे,
वैराग्य की स्मृति के,
वो सुनहरे पल!!
                             **********   प्रतिभा कटियार 

May you move in harmony, may you speak in unison; let our mind be equanimous like in the begining; let the divinity manifest in your sacred endeavours.

https://www.youtube.com/watch?v=ijQB3Chpteg&feature=youtube_gdata_player

गुरुवार, 28 जनवरी 2016

A short film produced by mass comm. students

 
 
Let us now look at a long-term problem. It is paradoxical to see floods in one part of our country while some other parts face drought. This drought - flood phenomenon is a recurring feature. The need of the hour is to have a water mission which will enable availability of water to the fields, villages, towns and industries throughout the year, even while maintaining environmental purity. One major part of the water mission would be networking of our rivers. Technological and project management capabilities of our country can rise to the occasion and make this river networking a reality with long term planning and proper investment. In addition, the vast sea around us can help by providing potable water through desalination as a cost effective technology. There are of course short term techniques such as water harvesting by revitalizing rural ponds, water recycling to water conservation. Such programmes should have a large scale people participation even at the conceptual and project planning stages. The entire programme should revolve around economic viability leading to continued prosperity for our people with larger employment potential, environmental sustainability, grass root level motivation and benefit sharing.
(This statement was given by our ex. vice-president Dr. A.P.J. Kalam on the occasion of Independence day)
Let us come to the point our common aim is to do something for our nation, for our nature. Let us remove the conflicts arising out of differences and small thinking.

                                                   ************  Pratibha Katiyar

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिवस पर

स्वामी विवेकानंद के लिए चित्र परिणाम
रे सन्यासी मन 

रे सन्यासी मन !
तू किसे खोजता कर रहा जतन 
जब द्धार तेरे सामने है 
तो क्यों भटक रहा है मन 
रे सन्यासी मन !
अब तो आवाहन भी होने लगा 
चल पड़ तू अपनी धुन में 
होकर मगन 
रे सन्यासी मन !
                         *******   प्रतिभा कटियार 

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

कौन थीं वो

कौन थीं वो 
एक दिवंगत संतात्मा के लिए मूलतः यह एक विदेशी महिला हैं जो भारतीय अध्यात्म से प्रेरित होकर जर्मनी से भारत आयीं और प्राचीन भारतीय दर्शन, ऋषि मुनियों की तपस्चर्या और उनके आध्यात्मिक ज्ञान की विरासत से इतना अभिभूत हुईं कि उन्होंने आजीवन भारत में ही निवास करने का संकल्प लिया और साधना के क्षेत्र में ही अपना जीवन समर्पित कर दिया कुछ वर्षों पूर्व संयोग से उनसे मिलने का सौभाग्य मिला मात्र कुछ पलों की यह छोटी सी भेंट सदैव के लिए अपनी स्मृति छोड़ गयी. पिछले वर्ष पुनः उनके दर्शन की इच्छा से उनके आश्रम गयी तो पता चला उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया. उन्ही पुण्यात्मा की स्मृति में एक छोटी सी जो रचना बन पड़ी उसे प्रकाशित कर रही हुँ आश्रम की ओर से यदि अनुमति मिली तो अधिक जानकारी व फोटो भी प्रकाशित की जाएगी .
      
यूँ ही एक दिन निकली 
 सड़क के सीधे छोर 
जहाँ अभ्यस्त ना थे पग 
कम जाते थे लोग 
मैं थी मेरे साथ थी 
मेरी एक घनिष्ठ मित्र 
हम दोनों चल पड़े थे 
किसी जिज्ञासावश 
देखें क्या है इस ओर 
कुछ ही कदम चले थे 
एक परिचित जानी पहचानी 
सहपाठी थी जा रही थी 
अपने  घर की ओर 
मार्ग में देखा उसने जब 
तो कहा चलो मेरे घर 
यह था एक औपचारिक निमंत्रण 
जो हमने स्वीकार कर लिया 
साथ हो लिए चल पड़े उसके संग 
चलो देखें आज यात्रा का
कौन सा पथ बाट जोह रहा
द्वार पर आकर चकित थे हम 
क्या ऐसे भी बसते हैं लोग यहाँ 
यह कोई आमजन ना थे 
ये तो थे दूर देश की संस्कृति से आये 
आकर आत्मसात हो गए
दो देश की संस्कृतियों को 
मिला जुला रूप 
अपनी नस्ल में दे गये 
उससे भी ज्यादा कौतूहल 
जो बस मौन में ही व्यक्त हो गया 
ना उसने कुछ कहा
ना हमने प्रश्न किया 
बस आनन्द बोध और श्रद्धा वश 
हमने उनको नमन किया
थीं वो एक ऋषि माता
उम्र थी कोई सत्तर वर्ष
की हो जैसे प्रचंड साधना
उनके व्यक्तित्व से ऐसा कुछ भान हुआ
चारों ओर मधुरता थी
थे बाग़ बगीचे, हरियाली
दूर तक फैली हुई थी कांति की ही छटा निराली

मन पुलकित विस्मित और आनंदित
ऐसे परिवेश को पाकर
जो बस दिखाई देता था
किसी दिवास्वप्न में आकर
स्वप्न आकर जैसे स्वयं साकार हो गया
शायद की हो वर्षों पूर्व तपस्या
जो हल्की सी स्मृति का बोध दे रहा
या फिर किसी संत आत्मा से
मिलना था बस किसी खातिर
शायद नियंता ने ऐसा कुछ
आज का दिन विशेष कर दिया

बस मौन ही मौन था
कोई शब्द ना थे
बस  थी आनंदित अभिव्यक्ति
समय का भी कुछ बोध ना था
थे शांत सभी कोई कोलाहल
और कोई शोर ना था

सुन पा रहे थे हम सभी को
विना बोले जैसे हों हम कोई आत्मजन
संवाद का ऐसा उदाहरण
अपूर्व, अनुपम, अदभुत, विलक्षण
आये हैं कुछ विशेष प्रयोजन
यह सन्देश मानो हमें
लक्ष्य की ओर इंगित कर रहा
ऐसे भी होते हैं पल
जीवन के जीवंत पूर्ण क्षण
हमसे आकर कुछ व्यक्त कर रहे
देखो ऐसे जीवन को भी
जो हर द्वंदों से हमको मुक्त कर रहे

कोई वैचारिक आकर्षण विकर्षण
और ना कोई संघर्षों से उपजा घर्षण
कुछ और नया अब प्रकट ना था
है यही शायद गंतव्य की मनोभूमि
ना जाने कौन सी तरंगें किस आवृत्ति से
अंदर प्रवाहमान हो तेजपुंज को प्रदीप्त कर गयीं
और ध्यान की प्रखरता को तीव्र कर गयीं
संवाद अब होने लगा
उस निराकार निर्विकार निश्छल हृदय से
मिल गया मानो मुझे वो
किसी खोजे हुए अंतस कमल से. 
                                                  ******    प्रतिभा कटियार 

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

Let we discuss about climate control 
rather than climate change. 

How much sensitive are we to our environment? how do we protect our natural resources? The earth, water, fire, air, sky, originally these are five elements of our nature. We have remembered the formula the law of conservation of energy, but we do not pay attention how to balance energy. Often we discuss on climate change and take the responsibility to reduce some harmful factors for it. Of course change is the law of nature but control is the mechanism of nature. Why we do not think about it. Can we develop the formula to keep the control over more consumption of natural resources.
  .                                                      **********  Pratibha Katiyar