शुक्रवार, 1 मई 2015

चलो दें मजदूर दिवस को एक नया दृष्टिकोण

आज पूरा विश्व अन्तराष्ट्रीय रूप से घोषित मजदूर दिवस मना रहा। भारत में  भी इस दिवस को पर्व की तरह मनाने की परंपरा कुछ प्रांतों व् क्षेत्रों में पनप रही है। जब भी  इस वर्ग को  विशेष पहचान दिलाने की ऐतिहासिकता से जुड़ी कहानी याद आती है तो स्वतः ही दिमाग में चित्रण  होता है, सोवियत संघ की सर्वहारा व् बुर्जुआ वर्ग के संघर्ष से उपजी मार्क्सवादी क्रांति का। फिर भारत में इसकी प्रासंगिकता से सम्बंधित बात आती है हालाँकि आज हम एक वैश्विक युग में जी रहे हैं, जहाँ सबके सरोकार व् मान्यताएं एक जैसे  लगते हैं पर किसी दिवस को मनाने का ढंग अलग अलग भी हो सकता है । हमारे यहाँ श्रम का विभाजन और देशों से थोड़ा भिन्न है, यहाँ श्रम का मतलब जाति व् वर्ग से भी जोड़ा जाता है। कार्य करने के इस वर्गीकरण को  कुछ लोग निम्न स्तर से देखें व् गलत धारणा के चलते इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें उससे पूर्व हमारे देखने और सोचने के  नजरिये में थोड़ा परिवर्तन लाने की आवश्यकता है इस मामले में हमारी सोच थोड़ी  व्यापक , संकीर्णताओं से परे  दूरगामी  व् स्पष्ट होनी  चाहिए। आज जब पूरा विश्व हमारी बढ़ती जनसँख्या के सकारात्मक पक्ष को मानव संसाधन से जोड़ रहा है, जनसँख्या के कारण  ऊर्जा की ज्यादा मात्रा में  खपत एक मुद्दा हो सकता है पर विकास में उसकी भागीदारी व् योगदान को भी झुटलाया नहीं जा सकता। ऐसे में भारत में श्रम का जातिगत विभाजन उचित नहीं बल्कि  कुशल प्रबंधन व्  वर्गीकरण  के द्वारा  आर्थिक , भौगोलिक , सांस्कृतिक , सामाजिक व् वैज्ञानिक विश्लेषण कर एक नए दृष्टिकोण का निर्माण करना चाहिए ,जो  देश के सर्वांगीण व् सतत विकास में भी लाभदाई हो सके । 
                                                                   प्रतिभा कटियार 

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