शनिवार, 16 मई 2015

ओ माँ गंगा



ओ माँ गंगा,
तू कितनी निर्मल कितनी शीतल
तेरे पावन तट की धारा
बहती जाये कल कल
तनिक ना लेती तू विश्राम 
सदा बहती कल कल 
ओ माँ गंगा
तू कितनी निर्मल कितनी शीतल  
जैसे तेरी हर धारा में 
गतिमान है जीवन का हर प्रतिछण 
प्रवाह है अवाध अविचल 
वैसे ही तेरी करुणा से 
निर्मल होता यह नंदन वन 
शांत गंभीर और सतत प्रवाह 
तुझसे मिलने को आती 
सरिताएँ और सरोवर 
तेरे इस अविरल प्रवाह पर 
निर्मित सेतु और बांध अनेक 
देते हमको ऊर्जा और प्रकाश से भर 
अपने उद्गम गोमुख से लेकर 
लम्बी दूरी तय करती 
और जाती गंगासागर तक 
तेरी इस लम्बी यात्रा पर 
कई तीर्थों का करते सेवन 
साधक श्रद्धालु और यात्रीजन 
कोलाहल भरे जीवन से 
जब थक जाता मानव 
तो आता तेरी शरण 
मन खुशियों से भर जाता 
हर पल सुनता संगीत तेरा 
मन में भरता एक प्रवाह 
जो बहता रहता कलकल !

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